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________________ समयसार-वैभव ( १३६/१ ) पुद्गल कर्मरूप धारण कर बँध रहता है चेतन संग । जिसके उदय-योग में चेतन लगे बदलने अपना रंग । प्रश्रद्धान अज्ञान, असंयमरूप विविधकर नव परिणाम । कर्ता बन रहता, तन्मय हो अभिनय कर वह पाठों याम । ( १३६/२ ) बध कब होता और कब नही ? । सुख दुख-कर्मफलास्वादन कर उदयकाल में जब अविराम - जीव विकारी बन रहताहै, रागद्वेषमय कर परिणामतब बंधता है। किन्तु मानले यदि सुखदुख वह एक समानतदा साम्य भावों से संवर-होगा-प्रास्त्रव का अवसान । ( १३६/३ ) द्रव्य कर्म के उदय मात्र से होता नहीं जीवको बंध । उपसर्गों में भी समभावी बन रहता निश्चित निर्बध । राग-द्वेष पर विजय प्राप्तकर बन समाधि में लीन पुमान् । कर्म शक्तियाँ इक क्षण में ही-क्षीण बना, पाता निर्वाण । (136/1) आठोयाम-आठ पहर-चौबीस घंटे निरंतर। (136/3) पुमान्–महापुरुष ।
SR No.010791
Book TitleSamaysar Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherJain Dharm Prakashan Karyalaya
Publication Year1970
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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