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________________ आदि अन्त ( 20 ) दोहा बृजरानी वृजराज के चरण कमल सिरनाइ । वृजलीला कुछु कहत हैं, लखी हानि जिहि भाइ ॥ १ ॥ मादव सुदि छठ के दिनां, सांत न कुड ज न्हाइ । संतन संग सब जातरी, वसत करमला जाइ ॥ २ ॥ तहां पावली निसि लख्यौ, इक मंडल पर रास । दंपति छबि संपति निशेखि, कहि सके विलास ॥ ३ ॥ X X X वरी होहु ग्वारिनि कहा जू हम खोटी देखी, सुमो नेक बैन सो तौ और ठाँव जाइये 1 दीजो हमें दान सो तौ और ज न परब कछु, गोरस दें सो रस हमारे कहां पाहयै । महा यह दीजै सो तौ महीपति दे है कोऊ, दह्यौ जो पै दहै हौ तो सीरौ कछु खाइयो । सूरत सुकवि एसें, सुनि हँसि री लाल । दीनी उस्माल सोना कहाँ लगि जाइये ॥ ४६ ॥ दोहा तब हंसिहंसि ग्वारिनि दियौ, ग्वारिनि दधि बहु माह । लीला जुगल किसोर की, कहत सुनत सुखदाह ||५०|| इति दानलीला मिश्र सूरतजी कृत संपूर्णम् । मं० १८३४ फा०सु० १३ बुधवार, प्रति- पत्र ५, पं० १६, अक्षर १६ से १६ [ स्थान- अनूप संस्कृत पुस्तकालय, बीकानेर ] (११) वनयात्रा (परिक्रमा व्रज चौरासी कोस की ) रचयिता - गोकुलनाथ (१) लेखनकाल - २० वीं शताब्दी आदि ताके धागे मधुवन है । तहाँ श्रीठाकुरजी ने गऊ धारण लीला करी है । तहाँ मधुकुण्ड है। तहां मधु-दैत्य को मायौ है ।
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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