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इति श्री प्रेम कहानी समाप्ता।
सम्बत् १८७१ मिति श्रावण शु. बुधवासरे। लिखतं चौथमलजी पातमार्यम् । लिपिकृतं महात्मा फतेचन्द जैपुर मध्ये।। प्रति-गुटकाकार पत्र ३०, पं. १७ अ. १६ साइज ८॥४६॥
[अनूप संस्कृत पुस्तकालय] ' ( ३ ) छीताइवार्ता-रचयिता-नारायण दास ।
प्रादि
प्रारंभ के ५ पत्र नहीं होने मे त्रुटित है, छठे का प्रारंभमध्य
दैहस्ति तुरंग, चले हि जनि सुरतखान के संग । नगर दुर्गपुर पाटण नगर रहिन सके तुरकन के घर । बहुत वात का कहौ बढाई, उतरे मीर देव गिर जाइ । धावइ तुरक देह महिधार, उबरै राड दीह वरनारि ॥ सुवस कही जे गांवों गांव, तिनके खाज मिटाए ठाउ । हाकिन मिलाइ मीड ए श्राइ, कांधो टेकि तिह देहि कवाई ॥ ६३ ॥ प्रजा मागि साथ दिट गई, देवगिर सुधि रामदेवलही । चित चिंता जब अपनी राइ, सच विसयाने लिए बुलाइ ॥ ६४ ॥
जिह दिन मिली कुरि संदरी, ढोल समुदगढ़ पहुनी तीरी । चटि चकडाल बिताइराइ, पावनि खबति करी तिहा पाइ । सासु सुसरा प्रागइ जाइ, जानु वसंत रित फूली झाइ । छाजे छत्र नवतने कराई अनुप, अतिह प्रानंद भयौ सबभूप ॥ श्रागइ होइ राइ भगबानो, आगह सुरसी कुंघर सजानो । को तिक जोम पाए जहान, जो कुछ दस विदेस सुजान ॥ ठाई २ मंगल गावा नारि, सहइ चतुर सनि वात विचारी, ठाई २ तरुणी नाचई काल, ठाई २ निरत करा भूषाल ॥