SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४1 त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. असमर्थ हो ऐसे उसकी आँग्ने चीजोंको देखनेमें असमर्थ होने लगी। गर्भ रहने के दुःखका भय लगा हो बस उसका सारा शरीर काँपने लगा । ऊपर अंकुश लेकर बैठे हुए महावतकें कारण से हाथीको चन नहीं पड़ती बसही वह ललितांगदेव रम्य-क्रीड़ापर्वतों, सरिताओं, वापिकाओं, दीर्घिकाओं तालाबों) और बगीचाम भी आराम नहीं पाता था। (६००-६१३) उसकी ऐसी दशा देखकर देवी स्वयंप्रभा बोली, "हे नाथ! मैंने आपका ऐसा कौनसा अपराध किया है कि जिसके कारण आप इस तरह नाराजसे रहते हैं ? (३१४) ललितांगदेव बोला, "ह सुभ्र ! (सुन्दर भौहोंवाली !) तुमने कोई अपराध नहीं किया । अपराध मेगा है कि मैंने पुण्य कम किया-तपस्या भी कम की । पूर्वजन्ममें में विद्याधरीका राजा था, तब भोगकायों में जागृत और धर्मकायाम प्रमादी था। मेरे सौभाग्यके इतकी तरह स्वयंवुद्ध नामकं मंत्री ने मेरी थोड़ी उम्र वाकी रही तब मुझे जनधर्मका उपदेश दिया। मैंने उसको स्वीकार किया। उस थोड़ी मुहत तक पालन किए हुए घमंक प्रभावसे में इतने समय तक श्रोप्रभ विमानका प्रभु रहा, मगर अब मुझे यहाँसे जाना पड़ेगा। कारण, अलभ्य वस्तुका कभी लाम नहीं होता। (३१५.६१८) । उसी समय इंद्रको पानासे धर्मा नामका देव उसके पास आया और बोला, "याज ईशान कल्पके स्वामी नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें जिनेन्द्रप्रतिमाओं की पूजा करने के लिए जानेवाले हैं। उनकी आशा है कि श्राप भी उनके साथ जावे । (६१-६२०) सुनकर उसे बड़ी खुशी हुई और वह यह कहता हुआ
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy