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________________ VE ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. भी मनुष्य दीन या अनाथ न रहा। दूसरे इंद्रकी तरह उसने सभी चैत्योंमें विचित्र प्रकारके वस्त्रों, माणिक्यों, स्वर्ण और फलों वगैरासे पूजा की। फिर उसने स्वजनों और क्षमा माँगकर मुनिमहाराजसे मोक्षलक्ष्मीकी सखिके समान दीक्षा ली। सभी सावद्ययोगोंका-दोपांवाली बातोंका त्यागकर उस रानपिन चतुर्विध अाहारको भी छोड़ दिया। वे समाधिरूपी अमृतकं मरनेमें सदा मग्न रहे, और कमलिनीके खंडकी तरह जरासे भी म्लान नहीं हुए। वे महासत्वशिरोमणि, इस तरह अक्षीणक्रांतिवाले होने लगे मानों वे अच्छा भोजन करते थे और अच्छी पीनेकी चीजें पीते थे । बाईस दिन अनशनके अंतमें वे पंचपरमेष्ठीका स्मरण करते हुए कालधर्मको प्राप्त हुए।" (४५२-४५६) वहाँ से दिव्य अश्वोंके समान संचित पुण्यक द्वारा धनसेठका नीव तत्कालही दुर्लभ ईशानकल्प (दूसरे देवलोक ) में पहुँचा। वहाँ श्रीप्रमनामकं विमानमें, उत्पन्न होनेके शयनसंपुटमें मेघके गर्ममें बिजली उत्पन्न होती है वैसे, उत्पन्न हुआ। दिव्य आकृति, समचतुरस्र संस्थान, सात धातुओंसे रहित शरीर, शिरीप-ऋतुमके समान कोमलता, दिशाओंके अंतरमागको देदीप्यमान करनेवाली क्रांति, वनके समान काया, बड़ा उत्साह, सब तरहके पुण्यलक्षण, इच्छाके अनुसार,रुप धारण करने की शक्ति, अवविज्ञान, सभी विज्ञानांमें पारंगतता, अणिमादि आठ सिद्धियोंकी प्राप्ति, निर्दोपता और वैभव-ऐसे सभी गुणोंसे सहित वह (धनसठका जीव ) ललितांग ऐसा सार्थक नाम धारण करनेवाला देव दृश्या। दोनों पैरोंमें रत्नके
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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