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________________ ७० ० त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्रः पर्व २ सर्ग ६. " में तलवारोंकी और भालों की आवाजें सुनीं । बादमें क्रमसे हाथ, पैर, धड़ और मस्तक जमीनपर गिरे। तुम्हारी पत्नीने हमें निश्चयपूर्वक कहा कि ये मेरे पति हैं । फिर उसने अपने पतिके साथ चलने की इच्छा प्रकट की । पुत्रप्रेमसे हमने उसे कई बार रोका तो वह दूसरे लोगों के समानही मेरी कल्पना करने लगी; मैं जब उसके धाग्रहसे लाचार हो गया तब वह नहीं पर गई और लोगोंके सामने, शरीर के कटे वचत्रोंके साथ, चिनापर चढ़ गई। मैं इसी समय उसको निवापथंजली अर्पण करके घ्याया हूँ व उसके शोक उदास बैठा हूँ । अब तुम आए हो। यह क्या बात है ! वे अंग तुम्हारे नहीं थे या उस समय छाए थे वे तुम नहीं हो ? हमारा मन संशय में गिर गया | मगर इस विषय से हम - जिनके सुख अज्ञानसे मुद्रित हो गए हैं-अधिक क्या कह सकते हैं । (२६२-२६६ ) " E यह सुनकर बनावटी क्रोध बनाना हुआ वह पुरुष बोला, "हे राजा ! यह कैसी दुःखकी बात है। मैंने मनुष्यों कहने तुमको परस्त्री-सहोदर समझा था; सगर वह बात सिख्या थी । तुम्हारी उस प्रमिस मैंने अपनी प्रियाको धरोहरके तौर पर तुम्हें सौंपा था; मगर तुम्हारे चारणसे, कोमल दिखता हुआ कमल राम लोहेका निकलना है वैसेही, तुम मालूम होते हो। जो काम मेरे दुराचारी शत्रने किया था वही काम अफसोस है, कि अब तुमने किया है। इससे व तुम दोनोंमें क्या अंतर माना जाए ! है राजा ! यदि तुम परस्त्रीपर मोड़ करनेवाले नहीं हो और लोकापवादसे डरते हो तो मेरी स्त्री मुझे सौंप दो। उसको छिपा रखना योग्य नहीं है। जो
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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