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________________ i७५४] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग है. गृहीरत्न! तेरी संजीवनी श्रीपधियाँ क्या न कहीं भूल गया था ? हे गजरत्न! उस समय तुझे क्या गजनिमीलिका' हुई थी ? हे अश्वरत्न ! उस समय क्या तुझे शूलने सताया था ? हे चक्र ! हे दंड ! हे खड्ग ! उस समय तुम क्या छिप गए थे ? हे मणि और काँकिणी रत्न ! क्या तुम भी उस समय दिनके चंद्रमाकी तरह तेजहीन हो गए थे? हे छत्ररत्न ! हे चर्मरत्न ! तुम क्या बाजेके चमड़ेकी तरह फट गए थे ? हे नवनिधियो! क्या तुमको पृथ्वीने निगल लिया था। अरे! तुम सबके भरोसे मैंने कमारोंको शंकाहीन होकर भेजा था। खेलते हुए राजकुमारोंकी उस अधम नागसे तुमने रक्षा क्यों न की? अथवा सर्वनाश हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ? शायद इस ज्वलनप्रभका, उसके वैश सहित नाश कर डाल; मगर इससे क्या मेरे कुमार पुन: नीवित होंगे? ऋषभस्वामीकं वंशमें श्राज तक कोई इस तरह नहीं मरा। इं पुत्रो! तुम इस लज्जाजनक मृत्युको कसे प्राप्त हुए? मेरे सभी पूर्वज अपनी श्रायु पूरी करके ही मरनेवाले हुए है। उन्दोंने अंतमें दीक्षा ग्रहण कर स्वर्ग या मोन पाया है। हे पुत्रो! जैसे जंगलमें उगे हुए वृक्षोंके दोहद पूरे नहीं होते हैं वैसेही तुम्हारी स्वेच्छा विहारकी इच्छा अबतक पूरी नहीं हुई थी। उदयमें पाया हुआ पूर्ण चाँद राहुसे असा गया; फजे-फूले वृक्षों को हाथीने तोड़ डाला; किनारेपर पहुँचे हुए जहाजके, तटके पर्वनने, टुकड़े कर दिए आकाशमें पाए हुए नवीन मेघको हवाने छिन्न-भिन्न कर दिया, पके हुए धानका खेत दावानलमें भस्म - - -एक रोग जिससे रायीकी आँखें बंद हो जाती है, न देखनेकाबहाना।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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