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________________ ___४४४] त्रिषष्टि शलाका पुस्य-चरित्र: पर्व २. सर्ग ६. राजाकी बार्ने सुनकर ब्राह्मण नटकी तरह आँसू गिराता हुआ हाथ जोड़कर बोला, "हे. राजा ! जैसे स्वर्ग इंद्रके न्याय और पराक्रमसे शोभता है वैसेही यह भरतकी छह खंड पृथ्वी आपसे राजन्वनी हो रही है। इसमें कोई क्रिसीका स्वर्ण-रत्नादिक ने नहीं सकता है। धनिक लोग दो गाँवोंके बीचके रस्तेपर भी निश्चित होकर घरकी तरह सो सकते हैं। अपने उत्तम कुलकी तरह कोई किसीकी धरोहरका उच्छेद नहीं करता। गाँवोंके रतक अपनी संतानों के समान लोगोंकी रक्षा करते हैं। अधिक धन मिलता हो तो भी चुंगीके अधिकारी, अपराधके प्रमाण दंडकी तरह योग्य कर वसूल करते हैं। उत्तम सिद्धांत ग्रहण करनेवाले शिष्य जैसे पुन: गुमके साथ विवाद नहीं करते हैं वैसेही, हिम्सेदार लोग हिस्सा दे लेकर फिर कमी झगड़ा नहीं करते। तुम्हारे राज्यमें सभी लोगन्यायी हैं, इसलिए वे परस्त्री. को, अपनी बहिन, कन्या, पुत्रवधू या माताके समान समझते हैं।जैसे प्रतियोंके उपायोंमें बैरवाणी नहीं होती वैसेही, तुम्हारे राज्योंमें भी वैरवाणी नहीं है। जैसे जलमें ताप नहीं होता वैसेही, तुम्हारी संतुष्ट प्रनामें आधि-व्याधि नहीं है। चोमासेमें तृषाकी तरह सारी पृथ्वी औषधिमय होनेसे उसमें बसनेवाले लोगोमें किसी तरहकी व्याधि नहीं है। और आपसाक्षात कल्पवृक्ष हैं इसलिए किसीको गरीबीका दुःख नहीं है । इसके सित्रा यद्यपि यह संसार दुःखकी खानके समान है तथापि मुझे किसी तरहका दुःख नहीं है। हाँ, मगर मुझ गरीवपर एक यह दुःस्त्र श्रा पड़ा है। (८०-८६) इस पृथ्वीमें, स्वर्गके जैसा, अर्थती नामका एक बड़ा देश
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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