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________________ z-j त्रिषष्टि शनाका पुत्रपन्चरित्र: पर्व २. सर्ग६. और अपना स्वाभाविकच धारण कर इन प्रचार सोचने लगे, जैसे प्रथम नियमसे वादळे नियमबलवान होते है बसेही कर्म सबसे ज्यादा बलवान होते हैं। उनसे अधिक बलवान दूसरा कोई नहीं है। जिसका प्रतिकार असंमत्र है ऐसे चर्यक्रे लिए प्रयत्न करनेची इच्छा रखना व्यर्थ है। कारण, यह इच्छा अाकाशको मारनेकी और हवाको पकडनी इच्छाले समान है। अब रोनसे क्या फायना ? इसलिए इन बाथी, घोड़े, वगैरा सारी सन्पत्तिबाहर रखनेवालनी तरह वापस ले जाकर महाराजचो माप हैं। इस बाद जैया चाहें वैसा व्यवहार हमारे साथ करें। (२४-३७) इस तरह विचारकर सवतःपुरको साथ ले दीन मुन्न किए अयोच्याची तरतखाना हए। उनमें उत्साह नहीं था। उनमुन्द्र मलिन और नत्राने ज्योति न थी। वे सोकर उठ हो म माम होने थे। बार बार चलकर अयोध्याके पास पहुँच सत्रएकत्र होकर पृथ्वीपर बैठे। उनका चित्त ऐलालपूर्ण था नानो किसी ने उन्हें बध्यशिलापर बिठाया हो। वे आपसमें इस तरह वानबीन करने लगे, "पहले राजाने हमको भक्त, बहुअनु ( अविज्ञानी), अनुभवी और बलवान सुमनावर बढ़ आदरके साथ अपने पुत्रों साथ भेजा था उन अलारोंके बिना हम अपने स्त्रानीक पार कैचे जाग? और नासिकारहित पुरुषकी तरह अपना मुन्ट में दिखाएं? अथवा अकस्मात वचपात मान उनकपुत्रांचनची वान उनसे कैसे करें? इससे हम वहाँ जाना ही नचाहिम हमारे लिए तो सर्व दुनियाँको शरण देनेवाली मौत प्राप्त करना ही योग्य है ।वान ने हमसे जो भाशा
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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