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________________ श्री अजितनाथ चरित्र [७२३ है। वह बड़ी ऋद्धिवाला पर्वत वलयाकार है । वह नौ योजन ऊँचा, पचास योजन विस्तारवाला और बड़ाही दुर्गम है। उसपर मैंने सोनेका गढ़ और सोनेकेही घरों और तोरणोंवाली लका नामकी नगरी बसाई है। वहाँसे छह योजन नीचे पृथ्वीमें, शुद्ध स्फटिक रत्नके गढ़वाली,नाना प्रकारके रत्नमय घरोंवाली और सवा सौ योजन लंबी-चौड़ी पाताललंका नामकी बहुतही प्राचीन और दुर्गम नगरी है। यह भी मेरीही मालिकीकी है । हे वत्स! तू इन नगरियोंको स्वीकार कर और उनका राजा हो। इन तीर्थंकर भगवान के दर्शनोंका फल तुझे आजही मिले।" (२७-३७) यों कहकर उस राक्षसपतिने नौ माणिकोंका बनाया हुआ एक बड़ा हार तथा राक्षसी विद्या उसे दी। धनवाहन भी तत्कालही भगवानको नमस्कार कर राक्षसद्वीपमें गया और वहाँ दोनों लंकाओंका राजा बना। राक्षसद्वीपके राज्यसे और राक्षसीविद्यासे उस धनवाहनका वंश तभीसे राक्षसवंश कहलाया। (३८-४०) ___. फिर वहाँसे सर्वज्ञ दूसरी तरफ विहार कर गए और सुरेंद्र तथा सगरादि भी अपने अपने स्थानोंको गए। (४१) ___ अब राजा सगर चौसठ हजार स्त्रियोंके साथ रतिसागरमें निमग्न हो, इंद्रकी तरह क्रीड़ा करने लगा। उसे अंतःपुरके संभोगसे (अर्थात खीरत्नके सिवा अन्य जो स्त्रियाँ थीं उनके साथ संभोग करनेसे) जो ग्लानि हुई थी वह, स्त्रीरत्नके संभोग. से इसी तरह जाती रही जिस तरह मुसाफिरकी थकान, दक्षिण दिशाके पपनसे जाती रहती है। इस तरह हमेशा विषय-सुख
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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