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________________ . . . . चौथा भव-धनसेठ . . * [४६ स्त्री.आदिके रूपमें फंसे हुए पुरुपकी गति भी स्खलित हो जाती है-लड़खड़ा जाता है। जैसे धूत आदमीकी मित्रता थोड़े समयके लिए सुखदायक होती है वैसेही मोह पैदा करनेवाला संगीत भी बार बार सुननेसे, दुखका हेतु होता है। इसलिए हे स्वामी ! पापके मित्र, धर्मके विरोधी, और नरकमें.ले जानेवाले विपयोंका दूरहीसे त्याग. कीजिए। एक सेव्य (सेवा, करने लायक होता है और एक सेवक होता है; एक दाता होता. है और एक याचक होता है, एक सवार होता है और एक वाहन होता है; एक.अभयदांता होता है और एक अभय माँगनेवाला होता है.इनसे इसी लोकमें. धर्म-अधर्मका महान फल दिखाई देता है। इसको देखते हुए भी जो मनुष्य मानता नहीं है उसका भला हो:! और क्या कहा जाए ? हे राजन् ! आपको असत्य वचनकी तरह दुःख देनेवाले अधर्मका त्याग और सत्य वचनकी तरह सुखके. अद्वितीय कारणरूप धर्मका ग्रहण करना चाहिए।" (३४६-३७४) ये बातें सुनकर शतमति नामका मंत्री बोला, "प्रतिक्षणभंगुर पदार्थक विपयके ज्ञानके सिवा जुदा कोई प्रात्मा नहीं है । वस्तुओं में स्थिरताकी जो वृद्धि है उसका मूल कारण वासना है। इसलिए पूर्व और अपर क्षणोंकी घासनारूप एकता वास्तविक है, क्षणोंकी एकता वास्तविक नहीं है।" . . ( ३७५-३७६) - तब स्वयंवुद्धने कहा, "कोई भी वस्तु अन्धय (परंपरा) रहित नहीं है। जैसे गायसे दृध पाने के लिए जल और घास इसे खिलानेकी कल्पना है। आकाशके फूलकी बरह और
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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