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________________ ६६६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्ष २. सर्ग ४. वैसेही वह वागा बारह योननपर स्थित प्रभासदेवकी समान आकर गिरा। बुद्धिमानौम श्रेष्ठ प्रभासदेवने बाणको देखा और उसपर खिले हुए सगर चक्रवर्तीके नामके अक्षर पढें । तत्काल ही प्रभासपति, सगरके वारणके साथ अनेक तरहकी भेटें लेकर इस तरह चक्रीके सामने चला जैसे घर पाए हुए गुरु-अतिथिके सामने गृहस्थ जाते हैं, और उसने आकाशमें रहकर मुकुटमणि, कंठभूषण, कड़े, कटिसूत्र, बाजूबंद और वाण चक्रवर्तीको भेट किए, तथा नम्रतापूर्वक अयोध्यापतिसे कहा, "हे चक्रवर्ती महाराज ! आजसे मैं अपने स्थानमें आपका आज्ञाकारी होकर. रहँगा।” (११५-१२३) तब चक्रवर्तीने भेट स्वीकार कर आदर सहित उससे बातचीत की और एक नौकरकी तरह उसे विदा किया। फिर वहाँसे चक्रवर्ती वापस छावनी में आया और स्नान तथा जिनपूजा कर उसने अपने परिवारके साथ बैठकर अष्टमभक्तका पारणा किया। आनंदित चक्रीने वरदामपतिकी तरह प्रभासपतिका भी वहाँ अष्टाह्निका महोत्सव किया। (१२४--१२६) वहाँसे चक्रके पीछे, प्रतीपगामी (यानी पीछे लौटनेवाले) समुद्रकी तरह चक्री अपनी सेनाके साथ सिंधुके दक्षिण किनारे। से पूर्वकी तरफ चला ! रस्तेमें सिंधु देवीके मंदिरफे पास उसने आकाशमें तुरतके उतरे हुए गंधर्व नगरके जैसी, अपनी छावनी डाली और सिंधुदेवीका मनमें स्मरण कर श्रष्टम तप किया। इससे सिंधुदेवीका रत्नासन कंपित हुश्रा। देवीने अवधिज्ञानसे जाना कि चक्री पाया है। तत्कालही वह भक्तिपरायण देवी भेट लेकर सामने आई। उसने श्राकाशमें रहकर निधिके जैसे एक
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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