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________________ ६४] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ४. - - हुए वरदामपतिने उठकर वाणको हाथमें लिया; उसपर सगर राजाका नाम देखकर वह इस तरह शांत हो गया जिस तरह नागदमनी दवाको देखकर सर्प शांत हो जाता है। उसने अपनी सभाके लोगोंसे कहा, "जंबृद्वीपके भरत क्षेत्रमें सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती उत्पन्न हुए हैं। घर आए हुए देवकी तरह विचित्र वोंसे और महा मूल्यवान रत्नालंकारोंसे यह चक्रवर्ती मेरे लिए पूजने लायक है।" (६८-१००) वह भेटें ले, तत्कालही रथमें बैठे हुए चक्रवर्तीके पास आकर अंतरीक्षमें खड़ा रहा और भंडारीकीतरह उसने रत्नोंका मुकुट, मोतियोंकी मालाएँ, बाजूबंद और कड़े इत्यादि चक्रीको भेंट किए। बाण भी वापस दिया और कहा, "आजसे इंद्रपुरीकं समान अपने देशमें भी, मैं आपका आज्ञाकारी बनकर वरदामतीर्थके अधिकारीकी तरह रहूँगा।" (१०१-१०४) कृतज्ञ चक्रवर्तीने उनसे भेट ले, उसका कथन स्वीकार कर, उसे सम्मान सहित विदा किया। (१०५) जलबाजियोंको (जलके घोड़ोंको ) देखकर जिसके स्थके घोड़े हिनहिना रहे हैं वह चक्रवर्ती चक्रके मार्गका अनुसरण करते हुए वापस लौटा और अपनी छावनी में आया। फिर उसने स्नान तथा जिनपूजा करके अष्ठम तपका पारणा किया। फिर वरदामकुमारका बड़ा अष्टाह्निका उत्सव किया। कारण ........"भक्तेष्वीशा हि प्रतिपत्तिदा।" [ईश अपने भक्तोंका सम्मान बढ़ानेवाले होते हैं। (१०६-१०८)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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