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________________ श्री अजितनाथ-धरित्र [६५ पात्ररूप, मुदित-श्रामोदशाली (सदा आनंदित मनवाले) और रुपा तथा उपेक्षा करनेवालोंमें मुख्य ( ऐसे सव श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त) हे योगात्मा, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। (३८४-३६८) . उधर उद्यानपालकोंने सगरचक्रीके पास जाकर निवेदन किया कि उद्यानमें अजितनाथ स्वामीका समवसरण हुआ है। प्रभुके समवसरणकी बात सुनकर सगरको इतना हर्प हुआ कि, जितना चक्रकी प्राप्तिके समाचारसे भी नहीं हुआ था। संतुष्टचित्त सगर चक्रवर्तीने उद्यानपालकोंको साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ इनाममें दी। फिर स्नान तथा प्रायश्चित्त कौतुक मंगलादिक कर, इंद्रकी तरह उदार आकृतिवाले रत्नोंके आभूपण धारण कर, कंधेपर दृढ़तासे हार रख अपने हाथसे अंकुशको नचाते हुए सगर राजा उत्तम हाथीपर, अगले आसनपर बैठे। हाथीके ऊँचे कुंभस्थलसे जिनका आधा शरीर ढक गया है ऐसे चक्री आधे उगे हुए सूर्यके समान शोभते थे। शंखों और नगारोकि शब्द दिशाओके मुग्बम फेलनेसे, सगर राजाके सैनिक इसी तरह एकत्रित हो गए जिस तरह सुघोपादि घंटोंकी आवाजसे देवता जमा हो जाते हैं। उस समय मुकुटधारी हजारों राजाओंके परिवारसे चक्री ऐसा दिखता था, मानो उसने अपने अनेक रूप बनाए हैं। मस्तकपर अभिषिक्त हुए राजाओंमें मुकुटके समान चक्री, मस्तकके ऊपर आकाशगंगाके प्रवर्तका.भ्रम पैदा करनेवाले श्वेत छत्रसे सुशोभित हो रहा था। और दोनों तरफ डुलाए जानेवाले चमरोंसे वह ऐसा शोभता था जैसे दोनों तरफ स्थित चंद्रबियोंसे मेरुपर्वत शोभता
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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