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________________ ... श्री अजितनाथ-चरित्र [६६ - - - देवोंकी बातें सुनकर उनका संसार वैराग्य इसी तरह बढ़ा जिस तरह पूर्व दिशाके पवनसे मेघ वढ़ते हैं । (१४०-१४१) सगरका राज्यारोहण उन्होंने तत्कालही सगरकुमारको बुलाया और कहा, "मेरी इच्छा संसार-सागरको तैरनेकी है, इसलिए तुम मेरे इस राज्य. भारको ग्रहण करो।" (६४२) प्रमुकी ऐसी आज्ञा सुनकर सगरकुमारका मुख काला पड़ गया। बूंद बूंद करके बरसते मेघकी तरह उनकी आँखोंसे औंसू गिरने लगे। वे हाथ जोड़कर बोले, "हे देव ! मैंने आपकी ऐसी कौनसी अभक्ति की है कि, जिससे आप मुझे अपनेसे अलग होनेकी आज्ञा करते हैं ? यदि कोई अपराध हो गया हो तो भी आपको मुझपर अप्रसन्न नहीं होना चाहिए । कारण "पूज्पैरभक्तोऽपि शिशुः शिष्यते न तु हीयते ।" [पूज्य अपने अभक्त शिशुको दंड देते हैं, इसका त्याग नहीं करते। हे प्रभो! आकाशसे ऊँचे मगर बगैर छायाके वृक्षकी तरह, आकाशमें उत्पन्न हुए, मगर नहीं घरसनेवाले, मेघकी तरह, निमर रहित बड़े पर्वतकी तरह सुंदर प्राकृति. वाले मगर लावण्यविहीन शरीरकी तरह और पिले हुए मगर सुगंधहीन पुष्पकी तरह आपके बिना यह राज्य मेरे फिस काम. का है ? हे प्रभो! आप निर्मग है ! नि:स्पद : मुमुक्ष तो भी में आपके चरणों की सेवाका त्याग नाही फगा, फिर राज्य anterwasnrn F-नाई सानोमाने इलाहाने माना। ३१
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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