SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग २. हृदयमें धारण करते हैं उनके सामने सब तरहकी लक्ष्मी सदा खड़ी रहती है । भयंकर कर्मरूपी रोगसे पीड़ित प्राणियोंको रोगसे छुड़ाने के लिए, उनके भाग्योदयसे, आप वैद्यक समान उत्पन्न हुए हैं। हे स्वामी! मरुस्थल (रेगिस्तान) के मुसाफिरकी सरह, आपके दर्शनरूपी अमृतके उत्तम स्वादसे, हमें जरासी भी तृप्ति नहीं होती है। हे प्रभो! साग्थीसे जैसे रथ (सीधा चलता है ) और कर्णधार (माँझी) से जैसे नौका (सीधी चलती है) वैसेही, आपके समान नायकके उत्पन्न होनेसे जगतके लोग सन्मार्गपर चलें । हे भगवन ! आपके चरण-क्रमलकी सेवा हमें मिली, इससे हमारा ऐश्वर्य अब कृतार्थ हुआ है।" (४६४-५०१) __इसी तरहके (भावोंवाले) एक सौ आठ श्लोकोंसे उसने स्तुति की। इंद्रने पहलेहीकी तरह अपने पाँच रूप बनाए । उसने एकरूपसे प्रभुको हायमें उठाया,दूसरे रूपसे प्रभुके मस्तकपर छत्र रखा, तीसरे और चौथे रूपोंसे हाथोंमें चमर लिए, और पाँचवें रूपसे वह वन्च लेकर प्रभुकं सामने खड़ा रहा। फिर अपनी इच्छाके अनुसार वह नम्रात्मा यथायोग्य परिवार सहित विनीता नगरीमें जितशत्रु राजाके घर आया। वहाँ उसने पहले विजयादेवी माताके पास रखे हुए तीर्थकरके प्रति विवको उठा लिया और तीर्थकरको मुला दिया। उसने प्रभुके सिरहाने सूर्य-चंद्रके समान उज्ज्वल कुंडलकी जोड़ी और कोमल तथा शीतल देवदूप्य वन्न रखे । उल्लोचम, आकाशसे उतरती हुई किरणोंके समान चमकदार मोनेकी बगड़ीवाला, सुसन्निस १-चंदोवा।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy