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________________ __ प्रथम भव-धनसेठ [३१ मोहनीय कर्मके नाश होनेसे, उत्पन्न होता है। (१९२-१६४) ... स्थावर और त्रस जीवोंकी हिंसासे सर्वथा दूर रहनेको सर्वविरति कहते हैं। यह सर्वविरतिपन सिद्धरूपी महलपर चढ़नेके लिए सीढ़ीके समान है। जो स्वभावसेही अल्प कपायवाले, दुनियाँके सुखोंसे उदास और विनयादि गुणोंवाले होते हैं उन महात्मा मुनियों को यह सर्वविरतीपन प्राप्त होता है। ( १६५-१६६) "यत्तापयति कर्माणि तत्तपः परिकीर्तितम् ।" [जो कर्मों को तपाता है (नाश करता है) उसे तप कहते हैं । ] उसके दो भेद हैं; १ वाह्य । २ अंतर । अनशनादि वाह्य तप है और प्रायश्चित आदि अंतर तप है। बाह्य तपके छः भेद हैं; १. अनशन (उपवास एकासन . विल आदि), २. ऊनोदरी (कम खाना), ३. वृत्तिसंक्षेप (जरूरतें कम करना), ४. रसत्याग (क रसोंमें हर रोज किसी रसको छोड़ना), ५. कायक्लेश ( केशलोंच आदि शरीर के दुख), ६. सलीनता (इंद्रियों और मनको रोकना)। अभ्यंतर तपके छः भेद है; १. प्रायश्चित्त (अतिचार लगे हों उनकी आलोचना करना और उनके लिए आवश्यक तप करना), २. वैयावृत्य (त्यागियोंकी और धर्मात्माओंकी सेवा करना), ३. स्वाध्याय (धर्मशास्त्रोंका पठन, पाठन, मनन श्रवण), ४. विनय (नम्रता ), ५. कायोत्सर्ग (शरीरके सय व्यापारीको छोड़ना), ६. शुभध्यान (धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानमें मन लगाना) । (१६७-१६६ )
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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