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________________ 'प्रथम भव-धनसेठ [२७ - - नहीं करने का नाम अभयदान है। जो अभयदान देता है वह __चारों पुरुषार्थों ( धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) का दान करता है। कारण, बचा हुआ जीव चारों पुरुषार्थ प्राप्त कर सकता है। प्राणियोंको राज्य, साम्राज्य और देवराज्यकी अपेक्षा भी जीवन अधिक प्रिय होता है। इसीसे कीचड़के कीड़ेको और स्वर्गके इंद्रको प्राण-नाशका भय समान होता है। इसलिए सुबुद्धि पुरुषको चाहिए कि वह सदा सावधान रहकर अभयदानकी प्रवृत्ति करे । अभयदान देनेसे मनुष्य परभवमें मनोहर, दीर्घायु, तन्दुरुस्त, कांतिवान, सुडोल और बलवान होता है। ( १६६-१७४) धर्मोपग्रहदान पांच तरहका होता है, १. दायक ( दान देनेवाला) शुद्ध हो, २. ग्राहक । दान लेनेवाला) शुद्ध हो, ३. देय (दान देनेकी चीज) शुद्ध हो, ४. काल (समय) शुद्ध अच्छा हो, ५ भाव शुद्ध हो।। दान देनेवाला वह शुद्ध होता है जिसका धनन्यायोपार्जित हो, जिसकी बुद्धि अच्छी हो जो किसी आशासे दान न देता हा, जो ज्ञानी हो (वह दान क्यों दे रहा है इस बातको समझता हो) और देनेके वाद पीछेसे पछतानेवाला न हो। वह यह माननेवाला हो कि ऐसा चित्त (जिसमें दान देनेकी इच्छा है) ऐसा वित्त (जो न्यायोपार्जित है) आर ऐसा पात्र ( शुद्ध दान लेनेवाला) मुझको मिला इससे मैं कृतार्थ हुआ हूँ। (१७५-१७७) दान लेनेवाले वे शुद्ध होते हैं जो सावद्ययोगसे विरक्त
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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