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________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४७६ ज्वारवाला ) समुद्र किनारोंके खड्डोंमें रत्न समूहको डालकर चला जाता है वैसेही प्रभु, पुंडरीकादिको घहीं छोड़कर,परिवार सहित दूसरी जगह विहार कर गए। जैसे उदयाचल पर्वतपर नक्षत्रों के साथ चंद्रमा रहता है वैसेही दूसरे मुनियों के साथ पुंडरीक गणधर उसी पर्वतपर रहे। फिर अतिसंवेगवान (परम त्यागी)वे प्रभुके समान मधुर वाणीसे दूसरे श्रमणोंसे इस तरह कहने लगे,- (४१७-४३२) "हे मुनियो ! जयकी इच्छा रखनेवालोंको जैसे सीमावर्ती किला ( सहायक होता है) वैसेही मोक्षकी इच्छा रखनेवालोंको यह पर्वत क्षेत्रके प्रभावसे सिद्धि देनेवाला है; तव हमें अव मुक्तिकी, दूसरी साधनाके समान संलेखना करनी चाहिए । यह संलेखना द्रव्य और भाव, ऐसे दो तरहकी है। साधुओंका सब तरहके उन्मादों और महारोगोंके कारणोंका नाश करना द्रव्य संलेखना है, और राग-द्वेप, मोह और सभी कषाय-रूपी स्वाभाविक शत्रुओंका विच्छेद करना भाव संलेखना है।" इस तरह कहकर पुंडरीक गणधरने कोटि श्रमणों के साथ पहले सव तरहके सूक्ष्म और बादर अतिचारोंकी आलोचना की और फिर अति शुद्धिके लिए फिरसे महाव्रतका आरोपण किया । कारण"क्षोमस्य क्षालितं द्विस्त्रियतिनैमल्यकारणम् ।" वस्त्रको दो तीन बार धोना जैसे निर्मलताका कारण है (वैसेही अतिचार लेकर पुनः साधुताका उच्चारण करना-विशुद्ध होना विशेष निर्मलताका कारण है।)] फिर उन्होंने
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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