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________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४७५ बोलना आरंभ किया, "अहो ! मैं सर्व वासुदेवों में पहला वासुदेव हूँगा, विदेहमें चक्रवर्ती हूँगा और ( भरतमें) अंतिम तीर्थंकर वनूँगा । मेरे सभी ( मनोरथ) पूर्ण हुए। सभी तीर्थकरों में मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर हैं, चक्रवर्तियों में मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती हैं और वासुदेवों में मैं पहला वासुदेव हूँगा । इससे मेरा कुल श्रेष्ठ है। हाथियोंमें जैसे ऐरावत हाथी श्रेष्ठ है, सभी ग्रहों में जैसे सूर्य श्रेष्ठ है और सभी तारोंमें जैसे चंद्र श्रेष्ठ है वैसेही सभी कुलोंमें एक मेरा कुलही श्रेष्ठ है ।" मकड़ी जैसे अपनी लारसे तार निकाल कर जाला बनाती है और फिर स्वयंही उसमें फँस जाती है वैसेही मरीचिने अपने कुलका मद करके नीच गोत्र बाँधा । ( ३८५ - ३६० ) भगवान ऋषभस्वामी गणधरों सहित विहारके बहाने पृथ्वीको पवित्र करने के लिए वहाँसे रवाना हुए। कोशल देशके लोगोंको पुत्रकी तरह कृपासे धर्ममें कुशल करते हुए, मानो परिचित हों ऐसे मगध देशके लोगोंको तपमें प्रवीण बनाते हुए, कमलके कोशको जैसे सूर्य विकसित करता है वैसेही काशी देश के लोगों को प्रबोध देते हुए, समुद्रको चंद्रमाकी तरह, दशार्ण देशको आनंदित करते हुए, मूच्छितों (अज्ञानमें बेहोश पड़े हुओं) को सावधान करते हों ऐसे चेदी देशको सचेत करते, बड़े वत्सों ( बैलों ) की तरह मालव देशसे धर्मधुराको वहन कराते, देवताओंकी तरह गुर्जर देशको पापरहित श्राशयवाला बनाते और वैद्यकी तरह सौराष्ट्र देशवासियोंको पटु (चतुर ) मनाते महात्मा ऋषभदेव शत्रुंजय पर्वतपर पधारे। ( ३६१-३६५ )
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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