SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [ ४५३ होता है। कौए भी दूसरे कौओंको बुलाकर अन्नादिक भक्षण करते हैं; मगर मैं अपने भाइयोंके बिना भोग भोग रहा हूँ, इसलिए कौओंसे भी हीन हूँ। मासक्षपणक (एक महिनेका उपवास करनेवाले) जैसे किसी दिन भिक्षा ग्रहण करते हैं वैसे अगर मैं भोग्य संपत्ति अपने भाइयोंको दूं तो क्या वे मेरे पुण्यसे उसे ग्रहण करेंगे ?" इस तरह सोच, प्रभुके चरणों में बैठ भरतने हाथ जोड़ अपने भाइयोंको भोग भोगनेके लिए आमंत्रण दिया। (१९०-१९४) उस समय प्रभुने कहा, "हे सरल अंत:करणवाले राजा! ये तेरे बंधु महासत्ववाले हैं और इन्होंने महाव्रत पालनेकी प्रतिज्ञा की है, इसलिए ये संसारकी असारता जानकर पहले त्यागे हुए भोगोंको वमन किए हुए अन्नकी तरह वापिस ग्रहण नहीं करेंगे।" इस तरह भोगसे संबंध रखनेवाले आमंत्रणका जब प्रभुने निषेध किया, तब पश्चाताप युक्त चक्रीने सोचा, "ये मेरे त्यागी बंधु भोग कभी नहीं भोगेंगे, फिर भी प्राणधारण 'करने के लिए आहार तो लेंगेही।" ऐसा सोचकर उन्होंने पाँचसौ बड़ी बड़ी बैलगाड़ियाँ भरकर आहार मँगवाया और अपने अनुज बंधुओंको पूर्वकी तरहही आहार लेनेका आमंत्रण दिया। . तब प्रभुने कहा, "हे भरतपति ! वह आधाकमी (मुनियोंके लिए बनाकर लाया गया आहार ) आहार मुनियोंके लिए ग्राह्य नहीं है।" इसप्रकार प्रभुके निषेध करनेपर उन्होंने अकृत और अकारित(न मुनियोंके लिए तैयार किए हुए न तैयार कराए हुए) अन्नके लिए मुनियोंको आमंत्रण दिया, क्योंकि ...... शोभते सर्वमार्जवे ।"
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy