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________________ ४५० । त्रिषष्टि शनाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. एक साथ होनेसे, गंगा जमुनाके संगमसी शोभा हो रही थी। सवारोंके हाथोंके भालोंकी चमकती किरणोंसे ऐसा जान पड़ता . . था मानो उन्होंने (भालोंने ) दूसरे भाले ऊँचे कर रखे हैं। हाथियोंके ऊपर सवार वीर कुंजर हर्षसे उच्च स्वरमें गर्जना कर रहे थे; ऐसा जान पड़ता था मानो हाथियोंपर दूसरे हाथी सवार हैं। सारे सैनिक जगतपतिको नमस्कार करनेके लिए भरतसे भी अधिक उत्सुक हो रहे थे। कारण, "असिकोशस्तदसितो नितांतं निशितोऽभवत्" तलवारका म्यान तलवारसे भी अधिक तीक्ष्ण होता है।] उन सबके कोलाहलने द्वारपालकी तरह, मध्यमें स्थित भरत राजासे निवेदन किया कि, सभी सैनिक जमा हो उए हैं। फिर मुनीश्वर जैसे राग-द्वेषको जीतकर मनको पवित्र बनाते हैं वैसेही, महाराजाने स्नान करके अंगको स्वच्छ किया और, प्रायश्चित्त तथा कौतुक-मंगल करके अपने चरित्रके समान, उजले वस्त्र पहने । मस्तकपर रहे हुए सफेद छत्रसे और दोनों तरफके श्वेत चामरोंसे सुशोभित महाराज अपने मंदिर (महल) के बाहरके चबूतरे पर गए और वहाँसे वे इस तरह हाथीपर सवार हुए जिस तरह सूर्य आकाशमें आता है। भेरी, शंख और आनक (ढोल विशेष) वगैरा उत्तम बाजोंकी ऊँची आवाजोंसे, फव्वारेके पानीकी तरह, आकाशको व्याप्त करते, मेघकी तरह हाथियों के मदजलसे दिशाओंको भरते, तरंगोंसे सागरकी तरह, तुरंगोंसे पृथ्वीको ढकते और कल्पवृक्षसे जुड़े हुए युगलियोंकी तरह हर्ष और शीघ्रतासे युक्त महाराज अपने अंत:पुर और परिवार सहित, थोड़ेही समयमें अष्टापद पर जा पहुंचे। (१४६-१६६)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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