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________________ ४४८] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग. समूह बड़ा रहा। भुवनपनि, ज्योतिषी और व्यंतरोंकी बियाँ दक्षिण द्वारसे प्रवेश कर, पूर्व विधिकं अनुसार प्रदक्षिणा और नमस्कार कर, नैऋत्य दिशा में बैठी और तीनों जातियोंके देव, पश्चिम द्वारसे प्रवेश कर, उसी तरह नमस्कार कर, अनुक्रमसे वायव्य दिशा में बैठे। इसतरह प्रभुको समवसरणमें विराजमान हुए जान, अपने विमानों के समूहसे श्राफाशको ढकता हुआ इंद्र शीवही वहाँ आया और उसने उत्तर द्वारसे समवसरगामें प्रवेश किया। भक्विान इंद्रस्वामीको तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर इस नरह स्तुति करने लगा,-(१३०-१४०) ह भगवान ! जब आप गुणांको सब नरहसे जानने में उत्तम योगी भी असमर्थ है, नब श्राप न्तुति करने लायक गुण कहाँ और निन्य प्रमादी स्तुनि करनेवाला मैं कहाँ ? तो मी हे नाथ ! मैं यथाशक्ति आप गुणांका लबन कन्गा क्या लँगड़े मनुष्यको मार्गपर चलनेसे कोई रोकता है ? हे प्रभो! इस समारपी गरमास पवगण हुप प्राणियोंके लिए आपके चरणोंकी छाया जैसे छत्रकी छायाका काम करती है, वैसही आप हमारी भी रक्षा कीजिए। ई नाय ! सुरजनेस परोपकारके लिए उगना है वैसही, श्राप लोक-कल्याण लिएडी विहार करते हैं। श्राप धन्य है ! कृतार्थ है ! मन्याहक सूर्यसे जैसे देहकी छाया संकुचित हो जाती है वैसही, श्राप उदय प्राणियाँ कर्म चारों तगमे नुऋड़ जाने हैं। वे पशु भी धन्य है जो सदा श्रापके दर्शन करते हैं ! और वे स्वर्गक देवता भी अधन्य है तो आपके दर्शन नहीं पाते हैं। हनीन लोक नाथ ! जिनके यरूपी योन श्राप अघिदवना विराजमान हैं, व मन्य
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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