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________________ १४२] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. (२०) भक्तिवश हो दिन में भी प्रभा सहित चंद्रमा स्थित हो ऐसे आकाशमें रहे हुए छत्रमे वे शामन थे; (२१) और मानो चंद्रके जुदा किए हुए सर्वत्व किरणोंक कोश हों ऐसे, गंगाकी नरंगोंके समान सफेद चामर उनपर दुलत थे। (२२) तपसे प्रदीप्त और मौन्य लाखों उत्तम माधुओंसे प्रमुएसे शोमते थे जैसे तारोंसे चंद्रमाशोमता है; (२३) जैसे सूरजहरक सागर और सरोवरके कैवलोको प्रबोध (प्रकुलित ) करता है एसेही महात्मा हरेक गाँव और शहरके भव्य जनाको प्रतिबोध (उपदेश) देते थे।' भगवानका अष्टापद पर्वतपर पहुँचना ___इस तरह विचरण करते हुए भगवान ऋषभदेव एक बार अष्टापद पवंतपर पहुँचे । (५३-७७ ) । ___ वह पर्वन एला मान्नुम होता था, मानो अत्यंत सफेदीके कारण शरदचनुक बावलांका एक जगहपर लगा हुआ ढेर हो; या क्षीरसमुद्रकी जमकर, बरफ बनी हुइ तरंग-राशिका लाकर रखा हुया ढेर हो अथवा प्रमुके जन्माभिषकके समय इंडके १-तीयकर जिन स्थानपर होते है (१) उसके चारों तरफ नवा मी चाहनातक गंग नहीं हांत: प्रागियोंकि यामी वरका नाश होता है; (बान्यादि न्यानकी त्री नाग करनेवाले नंतु नहीं होत; (४) मग कांग गंग नहीं होत; ( अनिवृधि नहीं होती; (६) अनावृष्टि नहीं होनी; (७) दुकान नहीं बना; (5) न्यचक्र या परचतका भय नहीं रहता; और (B) प्रक्रीछ, मानंडल रहता है। ये प्रभुका फेयनशान होने बाद मान्न होनेवाले. अतिशयोमके, देवकृत एनिमय है।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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