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________________ ४१०] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पव १. सग ५. तो हमें अपने स्वामीके द्वंद्व युद्ध में जीतनेके बारेमें कोई शंका नहीं होती; मगर बालवान बाहुबाले बाहुबली के साथ (द्वंद्व) युद्ध में जीतने की इंद्रको भी शंका रहती है, तो दूसरोंकी तो वात ही क्या है ? बड़ी नदीके पूरकी तरह दुःसह वेगवाले वाहुबलीके साथ पहले युद्ध करना स्वामीके लिए योग्य नहीं है । पहले हम लड़ लें, उसके वादही स्वामीके लिए लड़ाई में जाना ठीक है। कारण "पूर्वमश्वमेदांते वाजिनीवाधिरोहणम् ।" [पहले अश्वम यानी चाबुक सवार घोड़ोंको दमन करते हैं, उसके बादही उनपर सवारी की जाती है। ] इस तरह बातें करते और सोचते वीरोंके इशारोसे उनके भावोंको चक्रवर्तीने समझा, इसलिए उनको बुलाकर कहा, "हे वीर पुरुषो ! जैसे अवरका नाश करने के लिए सूरजकी किरणें आगे चलनेवाली होती है वैसेही, शत्रुओंका नाश करने में तुम मेरे अग्रेसर हो। गहरी खाई में गिरकर जैसे कोई हाथी किलेतक नहीं पहुँच सकता वैसेही तुन्दारं उपस्थित रहने से कभी कोई भी शत्रु मुमतक नहीं पहुँचा । पहले तुमने कभी मेरा युद्ध नहीं देखा, इसीलिए तुम्हारे मनमें व्यर्थकी शंकाएं हो रही है। कारण, "......"भक्तिमुपदेपीक्ष्यते भयम् ।" . . . [भक्तिजहाँशंकाका कारण नहीं होता वहाँ भी शंका पैदा करती है। इसलिए वीर सुभटो ! तुम सब एकत्र होकर मेरी मनाओका बल भी देखो, जिससे रोगके क्षय होनेसे जैसे दवाके गुणकी शंका होती है वह मिट जाती है वैसेही, तुम्हारी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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