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________________ __३६४] त्रिषष्टि शनाका पुरुप चरित्रः पर्व १. सर्ग ५. उसने भक्तिपूर्वक इस तरह म्नुनि करना प्रारंभ किया, (३६४-३७०) ई. सर्वन ! मैं अपने अज्ञानको दूर कर आपकी स्तुति करता हूँ; कारण श्रापकी दुवार भक्ति मुझे वाचाल बनाती है। हे श्रादि नार्थश! श्रापकी जय हो ! श्रापक चरगांक नोंकी कांनि, समाररूपी शत्रुमे दुर्गा प्राणियों के लिए वनके पिंजरेके समान होती है। हे देव ! श्रापके चरणकमल को देखने के लिए, राजईसकी तरह, जो प्रागी दुरसे भी श्रान है धन्य है। सरदीमें पत्रगण हुए जीव जैसे सूरजकी शरण में जाते हैं, वैसेही इस भयंकर संसारक दुरवसे पीदिन विवकी पुरुष सदा एक श्राप होकी शरगामें यात है। हे भगवान! जो अपने अनिमेय नेत्रोंसे हर्ष सहित श्रापको देवत है उनके लिए परलोकमें अनिमेय. पन (देव होना ) दुलम नहीं है । हे देव ! जैसे काजलसे लगी हुई शामी बन्नकी मलिनना धसे धोनसे मिटती है वैसेही लीबोंका कर्ममल श्राप दंशनासपीजलसे जाता है। स्वामी ! सदा 'यमय' इस नामका जप किया जाता है तो वह नप समा सिद्धियाँको श्राकर्षण करनेवाले मंत्र समान होता है। है. प्रमो ! जो आपका भक्तिरूपी कवच धारण कर लेता है, उस मनुष्यको न बच भेद सकता है न त्रिशूलही छेद सकता है।" (३७१-३७६) ऐसे भगवानकी स्तुति कर पुलकित शरीरसे प्रमुको नम. स्कार कर वह नृपशिगेमगि देवगृहसे बाहर श्राया। (३८) फिर उसन, सोने-माणिक्यसे मढ़ा हुश्रा बचका कवच धारण क्रिया; वह विजयलक्ष्मीको व्याइनके लिए धारण किए,
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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