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________________ सहर पाँचका भरत-पाहुबलीका वृत्तांत एक बार भरतेश्वर जिस समय सुखसे सभामें बैठे थे, उस समय सुपेण सेनापतिने श्राकर नमस्कार किया और कहा, "हे महाराज! आपने दिग्विजय कर लिया है तो भी आपका चक्र, जैसे मदोन्मत्त हाथी पालानस्तंभपर (हाथी बाँधनेके खमे पर) नहीं जाता है वैसेही, नगरमें नहीं पाता है।" भरतेश्वरने पूछा, "हे सेनापति ! इस छःखंड भरतक्षेत्रमें कोन ऐसा रहा है जो अब तक मेरी श्राझा नहीं मानता ?" उस समय मंत्रीने कहा, "हे स्वामी ! मैं जानता हूँ कि आप महारानने क्षुद्र हिमालय तक सारा भरतक्षेत्र जीत लिया है, आप दिग्विजय करके आए हैं, श्रापके जीतने लायक अय कौन शेष रह गया है ? कारण, "भ्रमद् घरट्टपतितास्तिष्टंति चणकाः किम् ।" [चलती चक्कीमें गिरा हुआ दाना क्या सावुत रह सकता है ?] तो भी चक्र शहरमें प्रवेश न कर यह सूचित करता है कि, अब तक कोई उन्मत्त पुरुष ऐसा है, जिसे आपको नीतना है । हे प्रभो ! ( मनुष्यों में तो क्या) देवताओंमें भी कोई पुरुष आपके जीतने लायक नहीं रहा है। मगर, हाँ! मुझे मालूम हुआ है कि दुनिया में एक दुर्जेयपुरुप रहाई, जो आपके जीतन योग्य है । वह है ऋषमस्वामीका पुत्र और आपका छोटा भाई
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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