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________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [२१३ मिहान लोग सेवाके लिए झुके हुए मनुष्यपर कृपाही करते हैं। फिर इंद्र जैसे अमरावतीमें जाता है वैसेही चक्रवर्ती रथको घुमाकर ( जिस मार्गसे आए थे) उसी मार्गसे वापस अपनी छावनी में चले गए। रथसे उतर, स्नान कर परिवार सहित उन्दोंने अट्टमका पारणा किया। बादमें (सेवककी तरह) झुके हुए मगधपतिका भी चक्रवर्तीने चक्रकी तरहही बड़ी धूम-धामसे वहाँ अष्टाहिका उत्सव किया । उत्सव समाप्त होनेपर, मानों सूर्यके रथमेसे निकलकर पाया हो ऐसे तेजसे तीक्ष्ण चक्र आकाशमें चला और दक्षिण दिशामें वरदामतीर्थकी तरफ बढ़ा। (व्याकरणमें) प्र-प्रादि उपसर्ग जैसे धातुके पीछे चलते हैं वैसेही चक्रवर्ती भी चक्रके पीछे चला । (१४-१५५ ) हमेशा एक योजन-मात्र चलते हुए क्रमसे चक्रवर्ती दक्षिण समुद्रपर ऐसे पहुँचा जैसे राजहंस मानसरोवर पर पहुँचता है। इलायची, लोंग, चिरोंजी और कक्कोल (एक फलदार वृक्ष) वृक्षोंवाले दक्षिण सागरके किनारे नपतिने सेनाकी छावनी डाली। महाराजकी आज्ञासे वर्द्धकिरत्नने पूर्व समुद्रके तटकी सरहही यहाँ भी निवासस्थान और पौषधशाला बनाए । राजाने वरदामतीथके देवको हृदयमें धारण कर अहम तप किया और पोपधागारमें पौपधत्रत ग्रहण किया। पौषध पूरा होनेपर पौषधघरमेंसे निकलकर धनुप धारण करनेवालोंमें अग्रणी चक्रवर्ती कालपृष्ठ (धनुष)ग्रहण कर सोनेके बने, रत्नोंसे जड़े और जयलक्ष्मीके निवासगृहके समान रथमें सवार हुआ। देवसे जैसे प्रासाद (मंदिर ) शोभता है वैसेही सुंदर श्राकृतिवाले '. १-महाभारत के प्रसिद्ध वीर कर्णके धनुपका नाम भी कालपृष्ठ' था।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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