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________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२७७ सिंहासन पर बैठकर पुनः उपदेशप्रद धर्मदेशना दी । इस तरह प्रभुरूपी समुद्रमेंसे उठी हुई देशनारूपी उद्दामवेला (ज्वार) की मर्यादाके समान प्रथम पौरुषी (पहर) पूरी हुई। (६५४-६६६) - उस समय, छिलकोंसे रहित, अखंड और उज्ज्वल शालि (चावल) से बनाया हुआ और थालमें रखा हुआ चार प्रस्थ (सेर) बलि समवसरणके पूर्वद्वारसे अंदर लाया गया। देवता ओंने उसे, खुशबू डालकर दुगना सुगंधित बना दिया था। प्रधान पुरुष उसे उठाए हुए थे। भरतेश्वरने उसे बनवाया था। और उसके आगे दुंदुभि बज रहे थे। उनकी निर्घोष (ध्वनि) से दिशाओंके मुखभाग प्रतिघोषित (प्रतिध्वनित ) हो रहे थे। उसके पीछे मंगलगीत गाती हुई खियाँ चल रही थीं, मानो प्रभुके प्रभावसे जन्माहुआ, पुण्यका समूह हो वैसे वह चारों तरफसे पुरवासियोंसे घिरा हुआ था। फिर मानों कल्याणरूपी धान्यका बीज बोनेके लिए हो वैसे वह बलि प्रभुकी प्रदक्षिणा कराके उछाला गया। मेघके जलको जैसे चातक ग्रहण करता है वैसेही आकाशसे गिरते हुए उस बलिके आधे भागको देवता ओंने अंतरिक्षमेंही (जमीनपर गिरनेसे पहलेही) ग्रहण कर लिया। पृथ्वीपर गिरनेके बाद उसका (गिरे हुएका ) आधा भाग भरत राजाने लिया और जो शेष रहा उसको गोत्रवालोंकी तरह लोगोंने बाँट लिया। उस बलिके प्रभावसे पहले हुए रोग नाश होते थे और छ:महीने तक फिरसे नए रोग पैदा नहीं होते थे। (६७०-६७७) फिर सिंहासनसे उठकर प्रभुउत्तरके मार्गसे बाहर निकले। जैसे कमलके चारों तरफ भौंरे फिरते हैं पैसेही सभी इंद्र भी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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