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________________ २७४ ] त्रिषष्टिं शलाका पुरुष-चरित्र: पत्र १. सर्ग , - तीसरा गुणत्रत कहलाता है। . आत और गद्रव्यानचा त्याग कर, सावध (हिंसा हो ऐसे) कामोंको छोड़, मुहूर्त (दो बड़ी ) तक समता धारण करना सामायिक वन कहलाता है। . . दिन और रात्रि संबंधी द्विग्नत में प्रमाण किया हुआ हो, उनमें भी कमी करना देशावकाशिक वन कहलाता है। . चार पर्वणियोंके दिन (दून, पंचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशीक दिन उपवासादि तप करना, कुव्यापारका(संसारसे संबंध रखनेवाले सभी कामोत्याग करना, ब्रह्मचर्य पालना और दूसरी न्नानादिक क्रियाओंका त्याग करना, पायधनत कहालाना है। ___ अतिथि (साधु) को चतुर्विध (अशन-रोटी आदि भोजन, पान-पान योग्य चीजें, खादिम-फल मेवा वगैरा, स्वादिम-लौंग, इलायची वगैरा) आहार, पात्र, बन्न और स्थान (रहने की जगह) कादान करना अतिथि संविमागवत कहलाता है। (१८-६४२) यनियों ( साधुनों ) को और श्रावकोंको, मोक्षकी प्राप्तिक लिए सम्यक से इन नीन रत्नांकी हमशा उपासना करना चाहिए। (४३) तीर्थ (चतुर्विध संघ) की स्थापना सी देशना सुनकर तत्कालद्दी भरनके पुत्र ऋषमसेनन प्रमुको नमस्कार कर बिनती की, स्वामी ! कयायरूपी दावानलस दाम्य (भयंकर) इस संसारल्या जंगलमें आपने नवीन मेयके समान अद्वितीय तत्वामृत बरसाया है। लगत्पति ! जैसे
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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