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________________ भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [२५७ समान गंभीर स्वरवाली दुंदुभि आकाशमें बजने लगी, उसकी प्रतिध्वनिसे चारों दिशाएँ गूंज उठीं। प्रभुके निकट एक रत्नमय ध्वज था, वह ऐसा शोभता था मानों धर्मने यह संकेत करनेके लिए, कि दुनियामें येही एक प्रभु हैं, अपना एक हाथ ऊँचा किया है। (४५६-४६८) . .. अब विमानपतियोंकी स्त्रियाँ पूर्वद्वारसे आई, तीन प्रदक्षिणा दे, तीर्थंकर और तीर्थको नमस्कार कर, प्रथम गढ़में साधुसाध्वियोंके लिए जगह छोड़, उनकी जगहके अग्निकोने में खड़ी रहीं। भुवनपति, ज्योतिष्क,और व्यंतरोंकी खियाँ दक्षिण दिशाके द्वारसे प्रवेश कर क्रमशः विमानपतियोंकी स्त्रियोंके समान विधि कर नैऋत्य कोनेमें खड़ी रहीं। भुवनपति,ज्योतिष्क और व्यंतर देवता पश्चिम दिशाके द्वारसे प्रवेश कर, ऊपरकी तरह विधि कर वायव्य दिशामें वैठे। वैमानिक देवता, तथा पुरुष और स्त्रियाँ उत्तर दिशाके द्वारसे प्रवेश कर पूर्व विधिके अनुसार ईशान दिशा में बैठे। वहाँ पहले आए हुए अल्प ऋद्धिवाले, पीछे आनेवाले बड़ी ऋद्धिवालोंको नमस्कार करते और पीछे आनेवाले पहले आए हुओंको नमस्कार करके आगे जाते। प्रभुके समवसरणमें किसीके लिए रोक न थी, कोई विकथा न थी, विरोधियों में भी परस्पर वैर नहीं था और किसीको किसीका डर नहीं था। दूसरे गढ़में तिथंच आकर बैठे और तीसरे गढ़में सबके वाहन रहे। तीसरे गढ़के बाहरके भागमें कई तिर्यंच,मनुष्य और देवता आते जाते दिखाई देते थे। (.४६६-४७७) इस तरह समवसरणकी रचना होनेके बाद सौधर्म कल्पका इंद्र हाथ जोड़, जगत्पतिको नमस्कार कर, रोमांचित हो, १७
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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