SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. धरणेंद्रने कहा, "तुम भरतके पास जाकर माँगो । वह भी प्रभुका पुत्र होनेसे प्रभुके समानही है।" उन्होंने कहा, "दुनियाके मालिकको पानेके बाद उनको छोड़कर अब हम कोई दूसरा मालिक नहीं बनाएँगे । कारण; कल्पवृक्षको पाकर कौन करीरके पास जाएगा ? हम परमेश्वरको छोड़कर दूसरेसे कुछ नहीं माँगेंगे। क्या चातक पक्षी मेघके सिवा किसी दूसरेसे कुछ माँगता है ? भरतादिका कल्याण हो ! आप क्यों चिंता करते हैं ? हमारे स्वामी जो कुछ दे सकेंगे देंगे; दूसरोंको इससे मतलव ?” (१५३-१५६) ___उनकी ऐसी युक्ति-युक्त बातें सुनकर नागराज खुश हुआ। उसने कहा, "मैं पातालपति हूँ और इन प्रभुका सेवक हूँ | मैं तुम्हें शाबाशी देता हूँ। तुम बड़े भाग्यवान हो और सत्यवान भी हो। इसीसे तुम्हारी यह दृढ़ प्रतिज्ञा है कि ये स्वामीही सेवा करने लायक हैं, दूसरे नहीं। इन दुनियाके मालिककी सेवा करनेसे राज्यसम्पति, बँधकर खिंची आई हो इस तरह, सेवकके पास चली आती है। वैताव्य पर्वतपर रहनेवाले विद्याधरोंकी मालिकी भी इन महात्माकी सेवा करनेवालेको वृक्षपर लटकते हुए फलकी तरह आसानीसे मिल जाती है। इनकी सेवा करनेसे भुवनाधिपति (इंद्र) की सम्पति भी, पैरोंतले पड़ी हुई दौलतकी तरह सरलतासे प्राप्त हो जाती है। इनकी सेवा करनेवालेको, व्यंतरेंद्रकी लक्ष्मी वशमें होकर इस तरह नमस्कार करती है जिस तरह जादूसे कोई स्त्री वशमें होती है । जो भाग्यवान पुरुष इन प्रभुकी सेवा करता है उसको,स्वयंवरा वधूकी तरह,ज्योतिष्पतिकी लक्ष्मी तुरंत अंगीकार करती है। जैसे वसंत ऋतुसे तरह तरहके फूलोंकी
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy