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________________ .: सागरचंद्रका वृत्तांत [ २११ है वैसेही आहारादि द्वारा पैदा किया हुआ इंद्रियोंका उन्माद आत्माके लिए भवभ्रमणका कारण होता है । ) यह सुगंधित है या वह ? मैं किसे ग्रहण करूँ ? इस तरह विचार करता हुआ प्राणी लंपट और मूढ़ बनकर भौंरेकी तरह भ्रमता फिरता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता । जैसे लोग खिलौनोंसे वालकोंको बहलाते हैं वैसेही सुंदर मालूम होनेवाली चीजोंसे लोग अपने आत्माहीको धोखा देते हैं। जैसे निद्रामें पड़ा हुआ पुरुप शास्त्रचिंतनसे वंचित होता है वैसेही वेणु (वंसी) और वीणाके नादस्वरमें कान लगाकर प्राणी अपने स्वार्थसे (आत्मस्वार्थसे) भ्रष्ट होता है। एक साथ प्रवल बने हुए त्रिदोष-वात, पित्त और कफ-की तरह उन्मत्त बने हुए विषयोंसे प्राणी अपनी चेतनाको खो देता है, इसलिए उसे धिक्कार है!" (१०१७-१०३३) ___ इस तरह जव प्रभुका मन संसारसे उदास होनेके विचारतंतुओंसे व्याप्त हो रहा था उसी समय सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दितोप, तुषिताश्व, अव्यावाध, मरुत और रिष्ट-ये नौ तरहके, ब्रह्म नामके पाँचवें देवलोकके अंतमें बसनेवाले, लौकातिक देवता प्रभुके चरणोंके पास आए और दूसरे मुकुटके समान, मस्तकपर पनकोश (कमलके संपुट) के जैसी अंजलि बना (दोनों हाथोंको जोड़) उन्होंने प्रभुसे निवेदन किया, "इंद्रके मुकुटको कांतिरूपी जलमें जिनके चरण मग्न हो रहे हैं ऐसे और भरतक्षेत्रमें नाश हुए मोक्षमार्गको बतानेमें दीपकके समान ऐसे; हे प्रभु ! जैसे आपने लोकव्यवहार प्रचलित किया है वैसेही अब आप अपने कृत्यको-फर्तव्यको याद कर धर्मतीर्थ प्रच. लित कीजिए।" इस तरह विनती कर देवता ब्रह्मलोकमें अपने
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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