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________________ सागरचंद्रका वृत्तांत . [२८१ .निकाल डालो और. फिर खाओ।" पालक प्रभुकी यह बात सुनकर वे उसके अनुसार अनाज खाने लगे। मगर कठिन होनेसे वैसा अनाज भी उनको नहीं पचने लगा। तब वे फिरसे प्रभुके पास गए। तब प्रभुने कहा, "पहले अनाजको हाथोंसे .मलो, उसे पानी में भिगोदो और फिर पत्तोंके दोनोंमें लेकर खाओ।" उन्होंने ऐसाही किया, तोभी उनका अजीर्ण नहीं मिटा । इसलिए वे पुन: प्रभुके पास गए। तब प्रभुने कहा, "ऊपर बताई हुई विधि करनेके बाद अनाजको मुट्ठीमें या बगलमें गरमी लगे इस तरह थोड़ी देर बरावर रखो, और फिर खाओ, इससे तुमको आराम मिलेगा।"ऐसा करनेपर भी उनका अजीर्ण नहीं मिटा और लोग कमजोर हो गए। उसी अरसेमें एक दिन वृक्षोंकी शाखाओंके आपसमें घिसनेसे आग पैदा हुई। (६३४-६४१) . वह भाग घास और लकड़ियोंको जलाने लगी। लोगोंने उस जलती हुई आगको रत्नराशि समझा और रत्न लेने के लिए उन्होंने हाथ लंबे किए। इससे उनके हाथ जलने लगे। तब वे प्रभुके पास जाकर कहने लगे, "वनमें कोई अद्भुत भूत पैदा हुआ है। प्रभुने कहा, "स्निग्ध और रूक्ष कालके मिलनेसे यह आग पैदा हुई है। एकांत रूक्ष कालमें या एकांत स्निग्ध कालमें आग कभी पैदा नहीं होती। तुम उसके पास जाओ और उसके पास जो घास-फूस हो उसको हटा दो। फिर उस आगको लो और पहले बताई हुई विधिके अनुसार तैयार किए हुए अनाज. को उसमें पकानो और पक जाने पर निकालके खाओ।" (६४२-१४६)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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