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________________ . .. : ‘सागरचंद्रका वृत्तांत '. [१८५ महोत्सव करनेकी इच्छा रखता हूँ इसलिए हे प्रभो ! आप 'प्रसन्न होकर मुझे अनुमति दीजिए। भुवनमें भूषणरूप रूपवान सुमंगला और सुनंदा आपके व्याहने योग्य है ।" (७५७-७६५) उस समय स्वामी भी, अवधिज्ञानसे यह जानकर कि मुझे तेरासी लाख पूर्व तक दृढ़ भोगकर्म भोगना ही पड़ेंगे, सर हिला कर सार्यकालकी तरह अधोमुख हो रहे (७६६-६७) इंद्रने स्वामीके मनकी बात जानकर विवाहकर्मका प्रारंभ करने के तत्कालही देवताओंको वहाँ बुलाया। इंद्रकी आज्ञा पाकर आभियोगिक देवोंने वहाँ एक सुंदर मंडप बनाया। वह सुधर्मा सभाका अनुज (छोटा भाई) सा लगता था । उसमें रोपे हुए सोने, माणिक और चाँदीके खंभे, मेरु, रोहणाचल और चैताव्य पर्वतोंकी चूलिकाओं (शिखरों) से शोभते थे। उनपर रखे हुए स्वर्णमय उद्योतकारी(प्रकाश करनेवाले) कलश चक्रवर्तीके कांकणी रत्नोंके मंडलोंके समान शोभते थे और वहाँ रखी हुई वेदियाँ अपनी फैलती हुई किरणोंसे, दूसरे तेजको सहन नहीं करनेवाली सूर्यकी किरणोंका आभास कराती थीं। उस मंडपमें प्रवेश करनेवाले, मणिमय शिलाओंकी दीवारों में प्रतिबिवित बहुत परिवारवाले मालूम होते थे । रत्नोंके खंभोंपरकी पुतलियों नाचकर थकी हुई नाचनेवालियोंसी जान पड़ती थीं। उस मंडपकी हरेक दिशामें कल्पवृक्षके तोरण बनाए गए थे, जो ऐसे शोभते थे, मानों वे कामदेवके धनुष हो। और स्फटिकके द्वारकी शाखाओंपर नीलमणिके तोरण बनाए गए थे, वे शरद ऋतुकी मेघमालामें रही हुई ( उड़ती हुई ) तोतोंकी पंक्तियों के जैसे सुंदर लगते थे। कई स्थान स्फटिकमणियोंसे बने थे।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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