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________________ . .. सागरचंद्रका वृत्तांत . [१४५ से तत्कालही उसके क्रोधका वेग गल गया, और वर्षासे दावानलके बुझने पर पर्वत जैसे शांत होता है वैसेही वह शांत हो गया। "मुझे धिक्कार है कि मैंने ऐसा विचार किया। मेरा दुष्कृत (पाप) मिथ्या हो।" इस तरह कहकर उसने इंद्रासनका त्याग किया सात-आठ कदम भगवानके सामने चलकर, मानो दूसरे रत्नमुकुटकी देनेवाली हो ऐसी करांजलि सरपर रखी, जानु (घुटने) और मस्तक-कमलसे पृथ्वीको स्पर्श किया और प्रभुको नमस्कार कर, रोमांचित हो, उसने इस तरह भगवानसे प्रार्थना करना प्रारंभ किया। (३२४-३२६) ... "हे तीर्थनाथ ! हे जगतको सनाथ करनेवाले ! हे कृपारसके समुद्र ! हे नाभिनंदन ! आपको नमस्कार करता हूँ। हे नाथ! नंदनादिक (नंदन, सोमनस और पांडुक) नामके उद्यानोंसे जैसे मेरुपर्वत शोभता है वैसेही मति, श्रुति और अवधिज्ञान सहित आप शोभते हैं। क्योंकि ये तीनों जन्मसेही आपको प्राप्त हैं। हे देव! आज यहभरतक्षेत्र स्वर्गसे भी अधिक शोभता है; कारण, तीन लोकके मुकुटरत्नके समान आप उसको अलंकृत करते हैं। हे जगन्नाथ ! जन्मकल्याणकके महोत्सवसे पवित्र बना हुआ आजका दिन, संसारमें रहूँ तबतकके लिए (मेरे लिए) आपकी तरहही वंदनीय है। इस आपके जन्म-पर्वसे आज नारकियों को भी सुख हुआ है । अर्हतोंका जन्म किसके संतापको मिटानेवाला नहीं होता है ? इस जंबूद्वीपके भरतक्षेत्रमें निधान की तरह धर्म नष्ट हो गया है, उसे आप अपने आज्ञारूपी बीजसे पुन: प्रकाशित कीजिए। हे भगवानं !
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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