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________________ सागरचंद्रका वृत्तांत [११६ है। हे पापी ! तू यहाँसे चला जा ! खड़ा न रह ! तुझे देखनेसे भी पाप होता है ।"(७२-७५) इस तरह अपमानित होकर अशोकदत्त चोरकी तरह वहाँसे निकला। गोहत्या करनेवालेके सामन, पापरूपी अंधकारसे मलिन मुखवाला, खीजता हुआ अशोकदत्त चला जाता था। उस समय सामने आते हुए सागरचंद्रने उसे देखा और उस साफ मनवालेने उससे पूछा, "हे मित्र ! तुम दुखी क्यों दिखते हो ?” (७६-७७) मायाके पर्वतके समान अशोकदत्तने दीर्घ निःश्वास डाला और मानो महान दुःखसे दुखी हो ऐसे होठ चढ़ाकर कहा," हे भाई ! जैसे हिमालयके पास रहनेवालोंके लिए ठिठुर जानेका हेतु प्रकट है वैसेही, इस संसारमें रहनेवालोंके लिए दुःखके कारण भी प्रकटही हैं । तो भी बुरी जगहपर उठे हुए फोड़ेकी तरह यह बात न गुप्तही रक्खी जा सकती है और न प्रकटही की जा सकती है।"(७८-८०) इसतरह कह आँखों में आँसू भर आनेका कपट दिखावाकर . वह चुप रहा। तब निष्कपट सागरचंद्र विचार करने लगा,"अहो! यह संसार असार है। इसमें ऐसे पुरुषोंको भी अचानक ऐसी शंकाकी जगह मिल जाती है। धुआँ जैसे पागकी सूचना करता है वैसेही धैर्यसे नहीं सहने लायक इसके आंतरिक दुःखको जबर्दस्ती इसके आँसू प्रकट करते हैं।" (८१-८३ ) कुछ देर इसी तरह सोच, उसके दुःखसे दुखी, सागरचंद्र पुन: गद्गद स्वरमें बोला,"हे बंधु ! अगर कहने लायक हो तो इसी समय, तुम अपने दुःखका कारण मुझे बताओ और मुझे
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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