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________________ ११४ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्व १. सर्ग २. धीरेधीरे चंदनदासको यह बात मालूम हुई। ऐसी बातें गुप्त भी कैसे रह सकती है ? चंदनदासने अपने दिलमें सोचा, "इस पुत्रका प्रियदर्शनापर प्रेम हुया, यह उचितही है। कारण, कमलिनीकी मित्रता राजहंसके साथही होती है। परंतु उसने वीरताका काम किया, यह अनुचित हुआ। कारण, पराक्रमी बनियोंको भी अपना पराक्रम प्रकट नहीं करना चाहिए। फिर सागरचंद्र मुरल स्वभावका है। उसकी मित्रता मायावी अशोकदत्त से हुई है यह अयोग्य है । इसका साथ इसी तरह बुरा हैं जिस तरह केलके साथ वेरका संग अहितकर होता है।" इस तरह बहुत देरतक सोचनेके बाद उसने सागरचंद्र कुमारको बुलाया और जैसे उत्तम हाथीको उसका महावत शिक्षा देना श्रारंभ करता है वैसेही चंदनदासने सागरचंद्रको मीठी वाणीमें उपदेश देना शुरू किया। (२८-३२) ___हे पुत्र ! सब शास्त्रोंका अभ्यास करनेसे तुम व्यवहारको अच्छी तरह समझते हो, तो भी मैं तुमसे कुछ कहता हूँ। हम वणिक कला-कौशलसे निर्वाह करनेवाले हैं, इसलिए हमें अनुट (सौम्य ) स्वभाव व मनोहर वेपसे रहना चाहिए। इस तरह रहनेहीसे हमारी निंदा नहीं होती; इसलिए इस जवानीमें भी तुमको गढ पराक्रमी (वीरताको गुप्त रखनेवाला) होना चाहिए । वणिक लोग सामान्य अर्थके लिए भी आशंकायुक्त वृत्तिवाने कहलाते हैं। त्रियोंका शरीर जैसे ढका हुआही अच्छा लगता है वैसेही, हमारी संपत्ति, विषयक्रीड़ा और दान ये सभी गुप्तही अच्छे लगते हैं। जैसे ऊँटके परोम बंधा हुया सोनेका कंकरण नहीं शोमता वैसेही अपनी जातिके लिए अयोग्य (पराक्रमका ) काम करना भी हमें नहीं शोभता ! इसलिए
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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