SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवाँ भव-धनसेठ [८१ जातिस्मरणसे यह पट चित्रित किया है। कारण, अनुभवके विना दूसरा कोई इन बातोंको जान नहीं सकता है।" सब स्थानोंको बताते हुए वनजंघने जो बातें कहीं उनको सुनकर पंडिताने कहा, "तुम्हारा कहना विलकुल सही है।" फिर पंडिता श्रीमतीके पास आई और हृदयके दुखको मिटानेवाली दवाके समान वे सारी बातें उसने श्रीमतीसे कहीं। (६७१-६८२) मेघके शब्द सुनकर जैसे विदूरपर्वतको भूमि रत्नोंसे अंकुरित होती है वैसेही श्रीमती अपने प्रिय पतिका हाल सुनकर रोमांचित हुई। फिर उसने पंडिताके द्वारा अपने पितासे यह बात कहलाई। कारण "अस्वातंत्र्यं कुलस्त्रीणां धर्मो नैसर्गिको यतः।" [स्वच्छंद न होना कुलीन स्त्रियोंका स्वाभाविक धर्म है ।] (६८३-६८४) पंडिताकी बात सुनकर वनसेन राजा ऐसे खुशी हुश्रा जैसे मेघकी आवाज सुनकर मोरको खुशी होती है। फिर उसने वध कुमारको बुलाया और कहा, "मेरी पुत्री श्रीमती पूर्वजन्मकी तरह इस जन्ममें भी तुम्हारी पत्नी वने।" वनजंघने स्वीकार किया। तव वनसेनने अपनी कन्या श्रीमतीका व्याह वनजघके साथ इस तरह कर दिया जिस तरह समुद्ने लक्ष्मीको विष्णुके साथ व्याह दिया था। फिर चंद्र और चाँदनीकी तरह एकरूप बने हुए ये पति-पनी उसञ्चल रेशमी वस्त्र धारणाफर राजाकी पाशाले लोहार्गलपुर गए। यहाँ
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy