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________________ आत्मविलास] [5 हो जिसका सम्बन्ध नहीं, वरन् क्या हिन्दू, क्या मुसलिम, क्या वौद्ध, क्या ईसाई, क्या भूसाई, क्या सिक्व, क्या जैन, क्या बच्चा, क्या युवा, क्या वृद्ध, क्या गर्भस्थ शिशु, क्या मरण सनिहित और मरणान्त जोव; सब जाति, सब मत व सव सम्प्रदायों और सब अवस्थाओंसे जिसका सम्बन्ध है और जो सबके लिये अधिकारानुसार श्रेय-पथप्रदर्शक है । मनुष्य मात्रके लिये ही जो कल्याणरूप नहीं, परन्तु पापाणसे लेकर उद्भिज, स्वेदन, अण्डज व जरायुज चारों खानियोंके लिये जो माताके समान हितकारी है। जिस प्रकार माता वच्चेको स्तनपान करातो हुई, सब प्रकार उसको सेवा करके लालन-पालन करती हुई वजेको युवावस्थातक पहुँचा देती है, उसी प्रकार जो धर्म जोयको पापाण-उद्भिलादिको जड योनियोंसे उठाकर तीनो अवस्थाओ और पॉचो कोशोंकी निर्विप्रतया क्रमोन्नति करता हुआ, जीवको मनुष्ययोनिमे पहुँचा कर प्रकृतिको पूर्णता सम्पादन कर देता है। मनुष्ययोनि प्राप्त कराके भी जो अपने अनुसारी जीवोंको पार्वतीके समान उनपर कल्याण करके और अपने शिवस्वरूपकी प्राप्ति कराके कैवल्यपदको प्राप्त करा देता है। परन्तु अपनेसे विमुख मनमुखो जीवोंको जो चोटें लगाये विना भी नहीं रहता, भैरवरूप धारकर अध्यात्म,अधिदैव व अधिभूत त्रितापरूपी त्रिशूलसे उनके हृदयोंको विदोर्ण करता है और योगिनीरूप धारकर उनके रक्तको पान करता रहता है। इस प्रकार अनेक रौरव-नरकॉकी यमयातना भुगाकर भी जो उनको अपने अनुसारी वनाए विना नहीं छोडता । क्या राजा, क्या प्रजा, क्या जाति, क्या व्यक्ति, क्या देश, किसीका- इसको लिहाज़ नहीं। और तो और, भगवान् रामचन्द्रको भी, रुलाये विना और भगवान कृष्णको भी चीरका निशाना बनाये बिना १. इसका विवरण पृ. १६ से २४ पर्यन्त पीछे किया जा चुका है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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