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________________ [पुण्य-पापकी व्याख्या यह कैसे निभ सकता है ? हाय ! तुम तो मूलमे ही भूल कर आये हो, इमसे पाछे हटो, और क्रम-क्रममे स्वार्थत्याग का अवलम्बन करके केवल पुण्य व केवल सुम्बके भागी बनो ! - इसी प्रसार संसाररूपी बनमें अज्ञानी जीवरूपी धन्दर भ्रम रहा है । मायारूपा बाजीगरने इसको पकड़नेके लिये देहामिमानरूपी सँकड़े मुंहका पात्र रखा है, जिसमें स्वार्थ और भोगोंकी आसक्तिरूपी रुचिकर फल बाल दिये हैं। जीवरूपी मरने हनको प्रिय ज न इस देहाभिमानके पात्रम हाय डाल दिया है और स्वार्थ व आसक्ति रूपी फलोंसे मुद्वि भर ली है। मुद्वि भर तो ली, परन्तु स्वार्थ, आसक्ति व अभिमानको पक्ढसे जो दुस हुआ नो हम से हाथ निकालने के लिये यह व्याकुल हो रहा है । परन्तु मूर्ख स्वार्थ र आसक्तिरूपी फलोंसे मुडि खाली नहीं करना । यदि मुद्धि इन फलोसे खाली कर दें तो इसके लिये कोई पद नहीं है और इस देहाभिमानकै पात्रसे सही-सलामत हाथ निकल सकता है । वस्तुतः दुसरा तो कोई इसको पकड़नेवाला है नहीं, यह स्वयं ही अपने अज्ञानद्वारा मिथ्या पकड़ने अपना हाथ फंसा बैठा है । परन्तु इस रहस्यको म जान और अज्ञानद्वारा ऐसा समझ कर कि मुझे किसी विशेष शक्ति ईश्वर अथवा मायाने इस पात्रमें इन फलोंके साथ बांध रखा है, गेता और चिल्लाता तो है. लेकिन मुडी खाली नहीं करता और मायारूपी बाजीगरद्वारा प्रमा नाकर तथा गलेमे अहंकर्तृत्वाभ्यासरूपी रस्सीसे बाँधा जाकर अनेक यानिमि खम नचाया जाता है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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