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________________ ५६] [ पुण्य-पापकी व्याख्या स्वार्थत्याग पुण्यरूप क्यों है तथा म्वार्थ पापरूप क्यों है ? इस विषय पर विचार करनेसे ज्ञात होगा कि संसारका मूल कारण एकमात्र परिच्छिन्न-अहंकार ही है। एक, निविकार, अपरिच्छिन्न, सत्यस्वरूप परमात्माको आवरण करके, उसको दबाकर उसके स्थान पर जब सविकार, परिच्छिन्न, मिथ्या अहंकार डेरा जमाता है, तभी सब अनर्थ आन उपस्थित होते हैं। वह सत्यस्वरूप भला कब सहन कर सकता है कि उसकी अनन्तता को नष्ट-भ्रष्ट किया जाकर एक तुच्छ अहंकार उसका स्थान ग्रहण करे। वह तो अपने सिवाय किसीको देखना ही नहीं चाहता। इधर यह तुच्छ अहंकार उसकी अनन्तताको सान्त में बदलने पर तुला हुआ है और मिथ्याके नीचे इस सत्य को दबाना व छुपाना चाहता है । अब भला यह सत्यकी अनन्त स्टीम मिथ्या व तुच्छ अहंकारके नीचे कैसे दवाई जा सकती है ? भारीसे भारी अञ्जिनोंको भी आतिशबाजीके अनारदानों की भॉति टुकड़े-टुकड़े करके उड़ाये बिना यह वस न करेगी और जब तक यह स्टीम बिल्कुल आजाद न होजाय जीवको कभी चैन न लेने देगी । इसी सिद्धान्तके अनुसार, चूंकि स्वार्थत्यागमूलक कर्म इस अहंकारके ढक्कनको ढीला व पतला करते हैं जिससे उस सत्यम्वरूपी स्टीमको पानाद होनेका अवकाश मिलता है अर्थात् उसकी अनन्तताका विस्तार होता है, इसी लिये इसका परिणाम पुण्य व सुख है। तथा स्वार्थमूलक कर्म अहंकारके ढक्कनको ह व मोटा करते हैं, जिससे आन्तरिक सत्यस्वरूपी स्टीम इस ढक्कनको अपने उपर देखना नहीं चाहती और इसे फैकती है तथा सूईके समान अपनी वीक्षण नोकसे इसको गूंदती है। इधर यह स्टीम न तो अपने ऊपर कोई आवरण देखना चाहती है और न अपनो अनन्तता का संकोच रखना चाहता है, उधर तुच्छ अहंकार म्वार्थके
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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