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________________ श्रामविलाम] । ४४ निवृत्तिमुख होनेसे सत्त्वगुणप्रधान है। यन, दान, तप तथा शास्त्रोके यावत् विधिरम्प की परम्पराम वराग्यकी उत्पत्तिमे सहायक है । उनका श्राशय केवल वैगग्यकी ओर लेजानेमें ही है,इसलिये प्रकृति के अनुकूल होनसे वे सभी पुण्यस्प है। जितनाजितना जो साधन वैराग्यकी उत्पत्तिमे निक्टतर है उतना-उनना वह अधिक पुण्यरूप है । यन्न, दानादिक तथा यावन विचिस्प को शुभ मकाम भावनामे किये हुए निष्काम भावकी उत्पत्ति में सहायक हैं, निष्काम भाव भक्तिकी उत्पत्तिगे महायक है और भक्तिके द्वारा ही वैराग्य का प्रादुर्भाव सम्भव है। इस प्रकार यह क्रम-क्रमसे अधिक पुण्यरूप हैं। प्रवृत्तिमुख मावन वे हैं, जिनके द्वारा प्रवृत्तिका संकोच न होकर प्रवृत्तिके विस्तारके माथ-साथ स्वार्थत्यागद्वारा अहभावका विस्तार किया जाय । यह मार्ग रजोगुणप्रधान है इस मार्गमें भी प्रवृत्तिका अपनी अवधिको प्राप्त करके निवृत्तिमे बदल जाना आवश्यक है। वास्तवमै प्रत्येक विधिरूप प्रवृत्ति अपने गर्भमे निवृत्तिको धारण किये हुए होती है, जोकि परिपक होकर निवृत्तिमें परिणत हो जाती है। जिस प्रकार फल वह कर और पक कर वृक्षसे आप ही छूट जाता है, इसी प्रकार प्रवृत्तिका भी बढ़ कर और पक कर छूट जाना जरूरी है। दोनों ही मार्ग अपने-अपने अधिकारानुसार उत्तम है मुत्य व गौण नहीं कहे जा सकते । अब इस प्रवृत्तिमार्गका संक्षेपसे निरूपण किया जाता है, हम मार्गके अनुसारी मनुष्योंको पाँच श्रेणियोंमे विभक्त किया जा सकता है। प्रथम श्रेणीके मनुष्य के है, जो केवल इन्द्रियारामी हैं और प्रथम श्रेणी 'उशिन | जिन्होंने इन्द्रियोंकी धधकती हुई अग्नि -1 मे विपयरूपी धृतकी आहुति देते रहना मनुष्य' अर्थात् पेटपाल ही अपने जीवनका लक्ष्य बनाया है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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