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________________ ३३] [ पुण्य-पाप की व्याख्या चलकर और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करके उसके कठिन परिश्रम को सार्थक करे और परमपितासे मेल पाजाय, क्योंकि प्रकृति का सम्पूर्ण व्यवहार इसी निमित्त था। प्रकृति-माताने इसको मुक्त करानेका भार तो अपने सिरपर ले ही लिया है और इससे कोई सन्देह नहीं कि वह इसको मुक्त कराये बिना न श्राप विश्राम लेगी और न इसको ही चैन से बैठने देगी। इसके विपरीत यदि इसकी चाल वेढड़ी जड़तापूर्वक ही रही बार माताका अनादर ही किया जाता रहा तो अवश्य यह माता कालीरूपसे विकरालम्बरूप धारण करके इसको नीचसे नीच योनियोंमे फैंके बिना भी न रहेगी। जैसा गीता अ० १६ श्लोक १७ से २० मे वर्णन किया गया है और इसी प्रसङ्गमे पीछे पृ० ३०, ३१ पर निरूपण कर आये हैं । अब यह जीवको खुशी है कि चाहे ठोकरें खा-खा कर पिट-पिट कर सीधे मार्ग चल पड़े, चाहे पहले विना कुटे-पिटे ही अपने रास्ते पर आजाय । इससे अच्छा तो यही है कि पहले ही सीधे रास्ते पर आजाय जिससे मार तो न खानी पड़े। प्रकृति ही परमात्माका कानून है जोकि बड़ा कठोर है। प्रकृतिका भटल | इसको किसीका लिहाज नहीं, जो इसका _नियम , | सेवा करते हैं उनके लिये यह भवानीरूप से दर्शन देती है और शिवस्वरूपसे मेल करा देती है, परन्तु अनादर करनेवालोंको यह कालीरूपसे मर्दन किये विना भी नहीं छोड़ती पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रादि जिसकी कलाकौशलसे शून्यमे टिके हुए हैं। जिसके भयसे पवन चलता है, जिसके भयसे सूर्य नियमित समय पर कॉपता हुआ निकल आता है, जिसके भयसे अग्नि, इन्द्र तथा मृत्यु दौड़ते रहते हैं। जिसका चलाया हुआ काल-चेक दिन, रात, पन, माल, पट्-ऋतु तथा संवत्तरके रूपमे घम रहा है। समुद्र साठी प्रहर जिसके
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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