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________________ ३१] [पुण्य पाप की व्याख्या आसुरी योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्येच कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।।(श्लोकइसे२०) अर्थः-अनेक प्रकारसे भ्रान्तचित्तवाले अज्ञानीजन मोहजाल में फंसे हुए और विपय-भोगोंमें आसक्त अपविन नरकमें गिरते हैं। ऐसे पुरुप अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले, टेढ़े, धन ध मानके मदसे मदान्वित दम्भ करके विधिस रहित अहंकार की पूजाके लिये नाममात्रके यत्रोको करते हैं। अहंकार, बल, घमण्ड. काम और क्रोध करके युक्त हुए एक-दूसरेकी निन्दा करनेवाले अपने शरीरमे तथा दूसरे देहोंमें स्थित मुम अन्तयोमादेवसे कैप करते हैं। (अर्थात वे यह नहीं जानते कि अपने शरीर तथा प्रतिपक्षी शरीरमें एकही अन्तर्यामीदेव है। उसको न जानकर अर्थात् जलवुद्धिका त्याग कर तरंग-रष्टिसे शरीरमें ही सत्यत्व बुद्धि रसकर जो विप उगना जारहा है, वह अन्तमै अपनेको हो चढ़के रहेगा । ऐसे पुरुषों को क्या गति होगा?)। उन द्वैप करनेवाले क्रूर नोच पुरुषोंको मैं घोर अम आसुरो यानियोंमें हो ससारमै फैंक देता हूँ, अर्थात् कूकर-शूकर योनियोको प्राप्त करता हूँ। हे कुन्तीपुत्र । वे मूद पुरुप जन्म-जन्ममे ही आसुरी योनियोको प्राप्त होकर और मुझको न पाकर नीच गतियोंको ही पाते हैं। निष्कर्ष यह कि विकासद्वारा मनुष्ययोनि प्राप्त करके प्रकृति का जीव पर तकाजा है कि वह आसुरी सम्पदासे विपके ममान भयभीत रहकर दैवी सम्पदाका पथ्य सेवन करे और अपनेश्रापको शिवस्वरूपका अधिकारी बनावे । सारांश, यह स्पष्ट हुआ कि अहंकार और बुद्धिके पूर्ण विकास करके ही जोर अपने-आपको ऊँचसे ऊँच योनिको प्राप्त कर सकता है और नीचसे नोच जड़ योनियों तक गिरा सकता है। जिस प्रकार
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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