SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३६ ) देता है इसी प्रकार आत्मा स्वयंप्रकाश होता हुआ शरीरके भीतर सुख-दुखादि तथा बाहर घट-पटादि सब पदार्थोंको प्रकाशित कर देता है। यह प्रकाशरूप ही उसका देखना-जाननाहै । (३) परन्तु इतना भेद और है कि दीपक भी घरके एक कौने में रखा हुआ अपनी किरणोंको फैलाकर वस्तुओंपर अपना प्रकाश डालता है, किन्तु आत्माका प्रकाश ऐसा भी नहीं, क्योंकि आत्मा आकाशके समान वाहर-भीतर सर्वत्र व्यापक है। इस लिये वह सर्वत्र सुख-दुखादि तथा घट-पटादिके भीतर आप बैठा हुआ सबको प्रकाश कर रहा है, दीपकके समान एक कोने में रहकर नहीं। (४ जिस प्रकार एक ही व्यापक आकाश १०० घटोंमे आया हुआ भिन्न-भिन्न एक-एक घटाकाश नामसे कहलाता है। वथा वही आकाश घरोंमे आया हुआ भिन्न-भिन्न मठाकाश नामसे कहलाता है। परन्तु उन भिन्न-भिन्न घठ तथा मठोंकी उपाधि करके व्यापक आकाशके टुकडे नहीं हो गये, किन्तु वह तो घटादि उपाधिके रहनेपर ज्यूँका त्यूँ है तथा घटादि उपाधि फूट-टूट जानेपर भी ज्यू की त्यू है। इसीप्रकार एक ही आत्मा सर्वव्यापी सव वस्तुओंके वाहर-भीतर रहता हुआ सवको प्रकाश देता है और सब वस्तुओंके उत्पत्ति नाश में उसका उत्पत्ति-नाश नहीं होता, वह चो सव भाव अभावमें ज्यू -का-त्यू है। मुख-दुखादिके प्रान्तर-नान, घट-पटादिके बाह्य ज्ञान तथा उनके भाव-अभावोंको अकाश देता है और आप ज्यू -का-त्यू, है । सो ही मैं हूँ (सोऽहम्)। मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ' इन आन्तरज्ञानोंको, "यह पहाड़ है, यह घर है। इन जड़े पदार्थोंको, 'यह घोड़ा है, यह गाय है इन जङ्गम वस्तुओंको, 'अव घट है अब नहीं है इन भाव;अभावोंको तथा 'अव सूर्य-चन्द्रादिका प्रकाश है और अब अन्धकार है' इत्यादि स्थावर-जगम, स्थूल-सूक्ष्म,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy