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________________ ( १३ ) (३) निष्काम-प्रार्थना हे भगवन् । इस मनुष्य जन्मका फल ये भोग नहीं, किन्तु चित्तकी शान्ति ही इस जीवनका मुख्य लक्ष्य है। हे प्रभो! ये विपय-भोग तो अनन्त योनियोंसे हमको प्राप्त होते आये हैं, प्रव तक इनके संयोगसे शान्ति नहीं मिली, बल्कि अग्निमें घृतकी आहुतिके समान इन्होंने चित्तको अधिकाधिक चञ्चल ही किया। फिर आगे इनके सम्बन्धसे शान्ति प्राप्त होगी, इसकी क्या बाशा की जा सकती है ? शोक है कि हम अशान्तिमे शान्ति ढूंढते रहे और शान्तम्बरूप आपके चरण-कमलोंसे विमुख रहे । आप दयालु हैं हम दान हैं, पिताके समान आप हमारे अपराधोको क्षमा करें और हमको अपना पल दे,जिससे हम सुखस्वरूप श्राप के चरण कमलोंका आश्रय पाकर दुःखस्वरूप संमार-समुद्रसे तर जाएँ और अक्षय शान्तिको प्राप्त हों। हे नाथ ! आपकी कृपासे हमने अब यह जाना है कि संसारमे अशान्तिका कारण और कोई नहीं है, केवल पदार्थोका ममत्व ही हमारे दुःखका कारण बनता है । घर वार, कुटुम्ब-परिवार आदि वास्तवमे हमारे नहीं हैं, हमारे इस शरीरमे आनेसे पहले भी ये किसी न किसी रूपमें थे और आपके ही थे तथा जब हम इम शरीरमें न रहेंगे तब भी ये हमारे न रहेंगे, आपके ही होंगे। जो वस्तु पहिले भी हमारी न हो और पीछे भी हमारी न रहे, फिर बीचमे ही वह वस्तु हमारी कैसे हो सकती है ? वीचमे ही उस वस्तुको अपना मान वैठना चोरी है और श्रमानतमें खयानत । जो वस्तु पहले जिसकी हो और पीछे जिसकी रहे,बीचमें मोव्ह उसीकी रहती है । बीचमे जो कोई दूसरा उसपर अपना अधिकार जमाता है वह बराबर चोर है। वीचमे ही अपना कब्जा करनेसे वह वस्तु अपनी हो नहीं जाती बीचमे धनपर अधिकार जमानेग्ने
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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