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________________ श्रामविलास] [२०४ द्वि० खण्ड ___ (१) भगवान् वसिष्ठके मतमे 'जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है। (२) वाचस्पति मिश्रके मतसे 'जितने जीव हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड है और उतने ही ईश्वर हैं।' (३) एक-जीववादीके मतसे 'मुख्य एक जीव है, अन्य सब जीवाभास हैं।' उपर्युक्त तीनो मतोंकी संगति इस प्रकार है :(१) वसिष्ठ-मत और वाचस्पति-मतकी संगति तो स्पष्ट ही है। (अ) जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है। (इ) जितने जीव हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड हैं और उतने ही ईश्वर हैं। इन दोनो मतोंसे तो प्रत्येक जीवकी अपनी-अपनी कल्पित ही ब्रह्माण्डादिकी सृष्टि सिद्ध होती है। (२) एक-जीववादीका तात्पर्य भी यही है कि दृश्यका द्रष्टा ही मुख्य एक जीव है। द्रष्टा ही अपनी दृष्टिसे दृश्यकी सृष्टि करता है और वे दृश्यरूप जीव ही जीवाभास है तथा प्रत्येक जीव अपनी-अपनी सृष्टिका द्रष्टा-जीव है । जवकि प्रत्येक जीव अपनीअपनी सृष्टिका मुख्य-जीव व द्रष्टा-जीव पाया गया, तब उपर्युक्त मतोके अनुसार जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है अथवा मुख्य एक जीव है, इसमे केवल शन्दोका ही भेद है अर्थका कोई भेद नहीं पाया जाता, क्योकि जीव तथा सृष्टि अवियाकल्पित ही है परमार्थ से नहीं है। अविद्याकी उपाधि निवृत्त होनेपर उस टाकी मुक्ति से दृश्यकी स्वाभाविक मुक्ति हो जाती है, क्योकि अविद्याद्वारा दृश्यका परिणामी-कारण वही था, अर्थात् वह आप ही स्वप्नवत् , श्यके स्वरूपमे परिणामी होकर दृश्यका दृष्टा बन रहा था।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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