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________________ श्रामविलास ] [२०० द्वि० खण्ड है। इस रीतिसे जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि भी सिद्ध हो जाती है और 'जितने द्रष्टा हैं उतने ही ब्रह्माण्डोकी उपलब्धि होनी चाहिये' यह आपत्ति भी नहीं रहती, क्योकि सभी उत्पत्ति, सभी स्थिति और सभी लयादिरूप द्रव्य, गुण व किया दृष्टिमात्र ही है। (६५) शङ्का:-तुम्हारे इस विवेचनसे जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि क्या मानसिक व क्या पाश्चभौतिक तो भलीभाँति प्रमाणित हुई । परन्तु जीव भी तो असंख्य हैं और अपनीअपनी सृष्टिके स्रष्टा हैं। तथा जो स्रष्टा है वह सृष्ट नहीं होना चाहिये । इसलिए अनेक स्रष्टा-जीव स्वस्वरूपसे ही रहे, फिर इस अनेकतामे एकताका आनन्द कहाँ। इस प्रकार जब असंख्य स्रष्टा-जीव प्राकृतिक रूपसे ही रहे, तब चेतनमे तो खलबली ज्यूकी-त्यू ही रही, 'आत्मा नित्य मुक्त है। इसका सुस्वाद तो प्राप्त न हुयी। (६६) समाधान :-वेदान्त-सिद्धान्त-मुक्तावलीका मत है कि मुख्य जीव एक ही है, अन्य सब जीव जीवाभास है, मुख्य नहीं। जैसे स्वप्नमें मुख्य एक ही जीव होता है अन्य सब स्वप्न-जीव जीवाभाम होते हैं । उस एक मुख्य-जीवके सकल्पमें ही सम्पूर्ण स्वप्न-प्रपञ्च होता है और उसके जाग्रत् होनेपर सम्पूर्ण स्वाम-संसार का अत्यन्ताभाव हो जाता है। इसी प्रकार इस जाग्रत्-प्रपञ्चकी स्थिति भी एक मुख्य-जीवके संकल्पमे ही है। वह आप ही तत्त दूप हुश्रा अपने आपको स्वप्नवत् नानारूप देखता है और अपुरे अंज्ञानसे वन्ध-मोक्ष, गुरु-शास्त्र व स्वर्ग-नरकादिकी कल्पना करत है। उसकी ज्ञान-जागृति व मुक्ति होनेपर अखिल संसारका मोक्ष हो जाता है । इस मतमें ऐसी शङ्का उत्पन्न होती है :- . . : 'यदि मुख्य एक ही जीव माना जाय तो, शुक्-वामदेवादिक
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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