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________________ [साधारण-धर्म स्थितिको सिद्ध कर रहे हैं, ऐसा-नहीं होना चाहिए, बल्कि जितने द्रष्टा है-उतने ही घट मिलने चाहिये। इस प्रकार घटके दृष्टान्तसे सभी वस्तुओको जान लेना। :(५८) समाधान :-हमारे ये वचन सर्व साधारण के लिए नहीं हैं। सर्व साधारण इन वचनोके अधिकारी नहीं हो सकते, किन्तु जो साधन इस लेखमें प्रारम्भसे निरूपण किये गये हैं वे भली-भाँति जिनके हृदयमें उतरे हैं, इस प्रकार जिनके अन्तःकरणसे मल-विक्षेप निवृत्त हुए हैं, नो साधन-चतुष्टय-सम्पन्न हैं और जिनकी वैराग्यवती बुद्धि कुतर्क, दुराग्रह व मन्दतादि दोषी से निर्दोष, होकर तीक्ष्ण हुई है, ऐसे उत्तम अधिकारी ही इन वचनोंके पात्र हो सकते हैं। इन पचनो करके वे शोभायमान होगे और उन करके ये वचन शोभायमान होगे। 'अव देखो, संसारमे 'प्रकृतीनां वैचित्र्यम्' व 'रुचीनां वैचिध्यम् तो प्रसिद्ध है ही, अर्थात् अपनी-अपनी प्रकृति और अपनीअपनी रुचि भिन्न-भिन्न होती है। संसारमे चिउँटीसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त वृक्ष, तिर्यक् , मनुष्य, देव, पितर सम्पूर्ण योनियोमे प्रकृति व रुचिको भेदं व्यक्तिगत देखनेमें आता है। अर्थात् तिर्यक्मनुण्यादि सम्पूर्ण योनियोंमें चाहे अपनी-अपनी जातिका भेद न हो, जाति उनकी एक ही हो, तथापि समान जाति रहते हुए भी व्यक्तिगते प्रकृति व रुचिका भेद अवश्य रहना चाहिए, जिससे जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि होना ही प्रमाणित होता है। संसारभरको खोज देखो, ऐसी कोई दो व्यक्ति न मिलेंगी जिनमें आकृति, प्रकृति व रुचिंकी समता देखनेमें श्रावे, किन्तु व्यक्ति आत भेद अवश्य रहना ही चाहिये। * (E) एक जाति रहते हुए प्राकृति वप्रकृतिका भेद उद्भिजयोनिमें भी पाया जाता है। श्राकृतिभेद् तो, स्वाभाविक ही है
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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